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________________ नवमः सर्गः। 56 देंगे, उसे मैं सहन कर लूंगा, किन्तु देवोंके वरण करनेके विषयमें कुछ भी कहकर तुमें दु:खित नहीं करूँगा) // 131 // अयोगजामन्वभवं न वेदनां हिताय मेऽभूदियमुन्मदिष्णुता / उदेति दोषादपि दोषलाघवं कशत्वमज्ञानवशादिवैनसः / / 132 // अयोगजामिति / इयमुन्मदिष्णुता उन्मत्तता। "अलङ कृम्" इत्यादिना इष्णुः प्रत्ययः / मे हितायोपकारायाभूत् / कुतः, अयोगजां वियोगोत्था वेदनां नान्व. भवम् / तथा हि-अज्ञानवशात् अज्ञानबलादेनसः पापस्य कृशत्वं ज्ञानकृतापेक्षयारूपत्वमिव दोषादुन्माददोषादपि दोषस्य वियोगदुःखस्य लाघवमरूपत्वमुदेति नस्मादोषोऽपि कदाचिदुपकरोतीति भावः // 132 // ___ यह उन्मादशीलता भी मेरे हित के लिए हुई, ( क्योंकि मैंने ) विरहजन्य वेदनाको नहीं पाया ( उन्मादीको किसीके प्रियाप्रियके कारण पीड़ा नहीं होती, अतः मुझे भी उन्मादसे जो पीडाका अनुभव नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ)। अज्ञान के कारण पापके लाघवके समान (एक) दोपके कारण भी ( दूसरे) दोषका लाघव होता है / [जानकारीमें पाप करनेसे जितना दोष लगता है, उतना दोष अजानकारी में पाप करनेसे नहीं लगता, अतएव एक दोषसे भी दूसरे दोषमें अपेक्षाकृत कमी होती ही है। प्रकृतमें-यदि मुझे उन्माद नहीं होता तो मुशे और अधिक पीड़ा होती, उन्गाद होना मेरे लिए अच्छा ही हुआ ] // 132 // तवेत्ययोगस्मरपावकोऽपि मे कदर्थनात्यर्थतयागमयाम् : प्रकाशमुन्माद्य यदद्य कारयन्मयात्मनो मामनुकम्पते स्म सः // 13 // तवेति / हे प्रिये ! इतीत्थं तव कदर्थनानां मदीयाप्रियोक्तिरूपकुत्सनानामत्यर्थः तया अत्याधिक्येन हेतुना मे मम सम्बन्धी अयोगे.यः स्मरपावकः कामाग्निः सोऽपि दयामगमत् दयालुरभूदित्यर्थः / यद्यस्मादद्य स कामाग्निः (प्रयोजककर्ता) उन्माद्य मामुन्मत्तं कृत्वा मया प्रयोज्येन आत्मनो मत्स्वरूपस्य प्रकाशं प्रकाशनं कारयन स्वामनुकम्पते स्म / तस्मात् कामाग्नेरपि दयोत्पन्नेत्युत्प्रेक्षा / किं बहुना उन्मादप्र. सादात उभावप्यावां कृतार्थों स्व इति तात्पर्यार्थः // 133 // तुम्हारी ( मेरे द्वारा कहे गये अप्रिय वचनोंसे उत्पन्न ) पीड़ाके आधिक्यसे मेरे विरहा. नलने मी दया की, क्योंकि मुझे उन्मादितकर वह विरहानल मुझसे अपना अर्थात् नलका प्रकाशन करता हुआ तुम्हें अनुकम्पित करता है। [त्वद्विषयक विरहानल यदि मुझे पीडित नहीं करता तो मैं न तो उन्मादित ही होता और न अपने स्वरूपका ( 'मैं नल हूँ' इस प्रकार ) प्रकाशन ही करता, इस अवस्थामें मेरे विरहसे तुम मर जाती और तुम्हारे बिना मैं भी मर जाता, इस कारण विरहानलने अधिक पीड़ा देनेसे मुझे उन्मादितकर जो मेरे स्वरूपको मुझसे ही प्रकाशित कराया ( मेरा नाम मुझसे ही कहलवाया), वह उसने
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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