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________________ 540 नैषधमहाकाव्यम्। 'अपने प्रिय नलको मैं प्राप्त कर लूगी' ऐसा निश्चय होनेसे तुम्हारे प्राण बच जायेंगे और तुम्हारे प्राण बच जानेसे मेरे भी प्राण बच जायेंगे, अतएव विरहानलने मुझे पीडाधिक्यसे उन्मादितकर तथा मेरे नामको प्रकाशित कराकर बड़ी दया की ] // 133 // अमी समीहै कपरास्तवामराः स्वकिङ्करं मामपि कर्तुमीशिषे / विधार्य कार्य सृज मा विधान्मुधा कृतानुतापस्त्वयि पाणिविग्रहम / / अमी इति / अमी अमरास्तव समीहायां त्वत्कृतानुरागे एकपरा एकाग्रास्ते च स्वामपेक्षन्ते इत्यर्थः / त्वञ्च मामपि स्वकिङ्करं निजदासं कर्तुमीशिषे शक्नोषि अपि शब्दात्तानपीत्यर्थः / “ईशः से" इतीडागमः / किन्तु विचार्य विमृश्य कार्य सृज उत्पादय / अतः अनुतापः पश्चात्तापः कृतः सन् त्वयि पाणिविग्रहं पाणिग्राहककृत्यं मुधा माविधात् माकार्षीत् / अविमृश्यकरणात्पश्चात्तापस्ते मा भूदित्यर्थः। विपूर्वा. इधातेलुङि "न माड्योग" इत्यडभावः // 134 // ___ ये देव तुम्हारी अभिलाषामें ही तत्पर है अर्थात् ये देव ही तुम्हें चाहते हैं, तुम उन्हें नहीं चाहती, तुम मुझे भी ( 'भी' शब्दसे देवोंको भी वरणकर ) अपना दास बनानेके लिये समर्थ हो अर्थात् 'मैं तुममें अनुराग नहीं करता' यह बात नहीं है, किन्तु मैं तुम्हें यद्यपि चाहता हूँ तथापि मेरा अनुराग अप्रयोजक है, ( देवोंको या मुझे पतिरूपमें वरणकर दास बनानेमें तुम स्वतन्त्र हो, अतएव अब ) विचार कर कार्य करो, जिससे तुझे किये गये वरणरूप कार्यका पश्चात्ताप बादमें विरोध न करे / [ देवोंको वरण करनेपर में नलको ही वरण करती तो अच्छा होता ऐसा तथा मुझे वरण करनेपर 'मैं देवोंको वरण करती तो अच्छा होता' ऐसी व्यर्थमें पश्चात्ताप न होवे, इस कारण सोचकर कार्य करो / इसी प्रकार देवोंमें भी इन्द्रको वरणकर मैं यम अग्नि, वरुण तथा नलमें-से किसीको वरण करती तो अच्छा होता इत्यादि सबके सम्बन्धमें कल्पना कर लेनी चाहिये ] // 134 // उदासितेनेव मयेदमुद्यसे भिया न तेभ्यः स्मरतानवान्नवा / हितं यदि स्यान्मदसुव्येन ते तदा तव प्रेमणि शुद्धिलब्धये / / 135 / / एतच्च माध्यस्थेनैवोच्यते न तु पक्षपातेनेत्याह-उदासितेनेति / उदासितेनौ. दासीन्येन माध्यस्थ्यैनैवेत्यर्थः, भावे क्तः कर्तरि वा / उदासितेन मध्यस्थेनैव मया इदं पूर्वोक्तमुद्यसे / वदेः कर्मणि लटि यकि, “वचिस्वपी" त्यादिना सम्प्रसारणम् / तेभ्यः सुरेभ्यो भिया वा स्मरतानवात् कामप्रयुक्तकााद्वा न। युवादित्वादग्प्र. त्ययः / तस्माद्विमृश्य कुर्विति भावः। अथ विमृश्यैव कुर्वे त्वद्वरणमेवेति निश्चयस्त. वाह-मदसुव्ययेन मत्प्राणसमर्पणेन ते तव हितं पथ्यं प्रियं यदि स्यात् / तदा मत्प्रा. णसमर्पणमिति शेषः / तव प्रेमणि विषये शुद्धिलब्धये आनृण्यलाभाय भवति / त्वत्कृतानुरागोपकारस्य प्राणसमर्पणमेव प्रत्युपकार इति भावः // 135 // मैं मध्यस्थ अर्थात् तटस्थ होकर ही यह ( इलो० 134 ) वचन तुमसे कहता हूँ, उन
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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