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________________ 604 नैषधमहाकाव्यम् / आभरणाश्मनां भूषणमणीना, या भासः तासां, महाजिकौतूहलं मल्लयुद्धकौतुकं, परस्पराक्रमणसंरम्भमिति यावत्, ईक्षमाणां, पुनर्विलासात् वलिते स्त्रीस्वभावालीलाचलिते, तत्रोत्प्रेक्षा-स्मरेण तुल्यतया स्वचापभ्रमाचालिते नु आदातुं कम्पिते इव स्थिते इत्यर्थः; चल कम्पने इति मिरवेऽपि 'ज्वललझलनमामनुपसर्गात् वा' इति विकल्पनाद्धस्वाभावः, एवम्भूते भ्रवौ वहन्तीं धारयन्तीम् // 96 // विरुद्ध रङ्गोंवाले भूषणोंमें जड़े गये रत्नोंकी कान्तियोंके मल्लयुद्ध ( कुश्ती ) के कौतुकको अर्थात् अनेक रङ्गोंके भूषण-जटित रत्नोंकी कान्तियों के परस्पर मिश्रणको कौतुकके साथ देखती हुई और मानो कामदेवके द्वारा अपने धनुषके भ्रमसे सञ्चालित (स्त्री-स्वभावजन्य), विलाससे टेढ़े किये गये भ्रद्वयको धारण करती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके भूषणों में अनेक परस्पर विरुद्ध रङ्गोंके रत्न जड़े गये थे, उनकी कान्ति परस्परमें मिलकर चाकचिक्य उत्पन्न करती थी, वह एक प्रकार उनके मल्ल-युद्धके समान मालूम पड़ता था उसे दमयन्ती देखती थी तथा विलासपूर्वक उसका कटाक्ष कामदेवद्वारा चलाये गये धनुषके समान प्रतीत होता था अर्थात् उसका कटाक्ष देखकर दर्शक कामपीड़ित हो जाते थे ] // 96 // सामोदपुष्पाशुगवासिताङ्गी किशोरशाखाप्रशयालिमालाम् / वसन्तलक्ष्मीमिव राजभिस्तैः कल्पद्रुमैरप्यभिलप्यमाणाम् / / 97 / / . सामोदेति / पुनः किम्भूताम् ? सामोदम् अतिमनोहरतदङ्गरूपवस्तुलाभेन सहर्ष यथा तथा, पुष्पाशुगेन कामेन, वासितम् अधिष्ठितम, अङ्गं वपुर्यस्यास्लाम, अन्यत्र-सामोदपुष्पाणि सुगन्धिकुसुमानि, आशुगो मलयानिलश्च, तैः वासिताङ्गी सुरभीकृताङ्गीम्, 'आमोदो हर्षगन्धयोः' 'भाशुगौ वायुविशिखौ' इति विश्वामरी, पुनः किशोरशाखाः कोमलाङ्गलयः, अग्रशया अग्रपाणयो यासां तादृश्यः, आलिमालाः सखीपक्कयो यस्यास्तां, 'पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः अन्यत्र-किशोरशाखानां नवपक्षवानाम, अग्रेषु ये शेरते इति तच्छायाः, 'अधिकरणे शेतेः' इत्यच प्रत्ययः, तादृश्यः अलिमाला भृङ्गश्रेणयः यस्यां तां, तैः राजभिः कल्पद्रुमैरपि सर्वाभिलाषपूरकरपीति भावः अभिलष्यमाणां वसन्तलचमीमिव, स्थितामिति शेषः यथा सर्वामिलाषपूरकैरपि कल्पवृक्षर्वसन्तलघमीरपेचयते तद्राजभिरपीति सात्विकोक्तिः।। हर्षयुक्त कामदेवसे अधिष्ठित (संयुक्त) शरीरवाली (पक्षा०-गन्धयुक्त पुष्प तथा मलयानिल, अथवा-गन्धयुक्त पुष्पोंकी हवासे सुवासित शरीरवाली) और पतली-पतली अङ्गुलियोंवाले हार्थोसे युक्त सखियों के समूहवाली (पक्षा०-पतली-पतली डालियों अर्थात् टहनियों के अग्रभाग (फुनगी) पर स्थित भ्रमरोंके समूहवाली ) कल्पद्रुमर्मोसे भी अभिलषित वसन्तलक्ष्मीके समान ( याचकोंके लिये ) कल्पद्रुमरूप ) राजाओंसे चाही जाती हुई ( उम दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) // 97 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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