________________ पञ्चमः सर्गः 287 विरह तथा सपत्नीका अनुगमनके समाचारसे अपार दुःख हुआ, मत एव उसका दीनभाव होना एवं लज्जा तथा कष्ट के होनेसे उल्लासहीन होनेसे मुखको नीचा किये रहना स्वाभाविक ही है] // 47 // यो मघोनि दिवमुच्चरमाणे रम्भया मलिनिमालमलम्भि | वर्ण एव स खलूज्ज्वलमस्याः शान्तमन्तरमभाषत भङ्गया // 48 // अथान्यासामपि कासांचिदप्सरसामीर्यानुभावानाह-य इत्यादि। मघोनीन्द्र 'श्वयुवमघोनाम्' इत्यादिना सम्प्रसारणे गुणः / दिवमाकाशम, उच्चरमाणे उत्पतति सति, 'उदश्वरः सकर्मकात्' इत्यात्मनेपदम् / रम्भया यो मलिनिमा मालिन्यम, अलमत्यन्तम्, अलम्भि अलामि / 'विभाषा चिण्णमुलोः' इति वा नुमागमः। स वर्णो मलिनिमैव, अस्या रम्भायाः, अन्तरमन्तरङ्गम्, उज्ज्वलं रोषाइयुज्ज्वलं प्रज्व. लितं सत् मझ्या कयाचिद्रीत्या भवितव्यताप्राबल्यधियेत्यर्थः / शान्तं शमितं निर्वा. पितमित्यर्थः / 'वा दान्त' इत्यादिना निपातः / अभाषत खलु। निर्वाणालातमलि. नमित्यास्यदित्यर्थः / अन्तःकरणवैवयंमूलस्वाहातववर्यस्येति भावः // 48 // इन्द्रको स्वर्ग छोड़कर चलनेपर रम्मा को जो मलिनता ( उदासी, पक्षान्तरमेंकालिमा) हुई, वह वर्ण ( उदासी या कालिमा) ही प्रकारान्तरसे इस (रम्मा) के निर्मल (पक्षान्तरमें-शृङ्गार रस युक्त ) अन्तःकरणको शान्त (नष्ट अर्थात् कालिमायुक्त, पक्षान्तर मेंशान्त-रस युक्त) बतलाया / ( अथवा-"उसके शान्त अन्तःकरणको जलता हुआ (इन्द्र-विरह-जन्य दुःख या इन्द्र के नीचकमसे सन्तप्त) बतलाया / [उम्ज्वळसे थोड़ी-सी भी कालिमा शीघ्र मालूम पड़ने कगती है / अथवा-जो शृङ्गार रससे युक्त है वह शान्तरससे युक्त हुआ यह आश्चर्य है / जब इन्द्र दमयन्तीको पाने की इच्छाकर स्वर्गसे मस्य॑लोक जाने लगे तब रन्मा भी खिन्न हो गयी ] // 48 // जीवितेन कृतमप्सरसां तत्प्राणमुक्तिरिह युक्तिमती नः / इत्यनक्षरमवाचि घृताच्या दीर्घनिःश्वसितनिर्गमनेन / / 46 // जीवितेनेति / अप्सरसा नोऽस्माकं जीवितेन कृतं, कष्टरवादिति भावः / तत्तस्मा. दिहास्मिन्समये प्राणमुक्ति प्राणत्याग, एवं युकिमती युक्तेति घृताच्या नाम देण्या दीर्घनिःश्वसितस्य निर्गमनेन निष्क्रमणमुखेन, अनक्षरमशब्दप्रयोगं, यथा तथा अवाचि / वचेब्रुनो वा कर्मणि लुछ। उक्तमिवेत्यर्थः / अत एव ग्यमकाप्रयोगाद् गम्योरप्रेता // 49 // (अब ) हम अप्सराओंका जीना व्यर्थ है, अत एव प्राणों का छूट जाना (मर बाना) 1. 'खलज्ज्वलदस्याः' इति पाठान्तरम् /