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________________ 471 नवमः सर्गः। विभर्ति वंशः कतमस्तमोऽपहं भवादशं नायकरत्नमीदृशम् / / तमन्यसामान्यघियाऽवमानितं त्वया महान्तं बहु मन्तुमुत्सहे / / 6 // बिभर्तीति / तमोऽपहं भवाशमीदृशं नायकरत्नं राजश्रेष्ठं हारमध्यमणिं च / 'नायको नेतरि श्रेष्ठे हारमध्यमणावपि' इति विश्वः। कतमो वंशः कुलं वेणुश्च / 'वंशो वेणी कुले वर्गे' इति विश्वः / बिभर्ति ? किमर्थमिति चेत् / अन्यसामान्यधिया पूर्व सर्वसाधारणबुद्धया अवमानितं दृष्टं तथाप्यद्य त्वया महान्तं तमुत्कृष्यमाणं वंशं बहु मन्तुं बहु कर्तुमुत्सहे, सर्वोऽपि हि वंशो मान्यैः पुरुषधौरेयैरेव प्रकाशते न स्वरूपत इति भावः / अत्र मध्यमणिरूपार्थान्तरप्रतीतिवनिरेव / अत्र वेणोर्मकायो। नित्वे प्रमाणम् / 'करीन्द्रजीमूतवराहशङ्खमत्स्या'ब्धिशुक्स्युद्भववेणुजानि / मुक्काफलानि अथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि' // इति // 6 // कोन वंश (सूर्य या चन्द्रमाके कुलमें कौनसा कुल, पक्षा०-कौन-सा बांस ) अन्धकार ( अज्ञान या क्रोध-नाशक आप-जैसे ( परमश्रेष्ठ ) नायक रत्न ( नायकोंमें रत्नतुल्य पक्षा०-मालाके मध्यमें स्थित श्रेष्ठ मणि) को धारण करता है अर्थात् आप किस वंश ( पक्षा-रत्नोपादक बाँसमें उत्पन्न हुए हैं ? अन्य साधारण बुद्धिसे अपमानित तथा आपसे महान् अर्थात् महत्त्वको प्राप्त उस (कुल, पक्षा०-बांस) का मैं बहुमान ( अधिक सरकार ) करने के लिये उत्साह करती हूं। [ कोई भी कुल या बांस आरम्भसे स्वयमेव उन्नत नहीं रहता है, पहले वह सर्वसामान्य दृष्टि से देखे जानेके कारण अपमानित ही रहता है किन्तु उसे उस वंशमें उत्पन्न कोई महापुरुष ही उन्नत करता है। अतएव आप बतलाहये कि आपने किस वंशमें जन्म लेकर उसे उन्नत किया है ? ] // 6 // इतीरयित्वा विरतां पुनः स तां गिरानुजग्राहतरां नराधिपः / विरुत्य विश्रान्तवती तपात्यये घनाघनश्चातकमण्डलीमिव // 7 // इतीति / इतीरयित्वा इत्थं व्याहृत्य विरतां तूष्णीभूतां तां भैमी स नराधिपः नलः तपात्यये ग्रीष्मान्ते विरुत्य पिपासया आक्रन्द्य विश्रान्तवती विरतां चातकानां मण्डली समूहं धनाधनो वर्षकाब्द इव / 'वर्षुकाब्दो घनाधनः' इत्यमरः। पुनगिरा वचनेन गर्जितेन चानुजग्राहतरामतिशयेनानुगृहीतवान् / आदरात् प्रत्युवाचेत्यर्थः / "किमेत्ति" इत्यादिना आम्प्रत्ययः // 7 // वह राजा नल, ऐसा ( श्लो० 3-6 ) कहकर चुप हुई उस दमयन्तीपर ग्रीष्मकालके वाद बोलकर विश्रान्त ( प्याससे थकी) चातकमण्डलीपर बरसनेवाले मेघके समान अतिशय अनुग्रह किया। [जिस प्रकार ग्रीष्म कालके बाद बोलते-बोलते प्याससे थककर चातकसमूहके चुप हो जानेपर मेघ वहुत गरज और बरसकर उसे अनुगृहीत करता है उसी प्रकार नलके वंश तथा नाम सुनने के लिए बहुत समयसे उत्सुक एवं बार-बार पूछकर चुप हुई 1. "-रस्याहि-" इति पाठः समीचीनो भाति, अहेरपि रत्नोपलब्धेर्दर्शनात् / 30 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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