________________ सामः सर्गः। भावः। किंच क्रशीयः कृशतरं तन्मध्यं कर्म स्खलनादिया नु भयेन किम् / चिरे. णामुञ्चत / रज्जुसञ्चारिवदिति भावः / उत्प्रेक्षात्रयस्य सजातीयस्य संसृष्टिः॥५॥ नलकी दृष्टि दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रमाके अमृतमें मग्न हुई थी क्या ? अथवा--दमयन्तीके (मृणाल-मूत्रके लिये भी मध्यमें अवकाश-शून्य ) दोनों स्तनोंके बीचमें ( उलझ ) गयी थी क्या ? अथवा--( अत्यन्त पतला होने से ) गिरनेके भयसे उस दमयन्तीके अत्यन्त पतले मध्य भाग ( कटिप्रदेश ) को देरसे छोड़ा क्या ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति कीचड़ आदिमें फंसकर, संकीर्ण स्थानमें अँटक कर अथवा तार बा रस्सी आदिपर चलते समय गिरनेके भयसे बड़ी सावधानीसे जलकर उसे बहुत बिलम्बसे छोड़ता है / नल दमयन्तीके मुख और स्तनोंको देखने के बाद कृशतम कटिभागको बहुत बिलम्ब तक देखते रहे ] // 5 // प्रियाङ्गपान्था कुच योनिवृत्य निवृत्य लाला नलग्भ्रमन्ती।। बभौतमां तं मृगनाभिले पतमः समासादितदिग्भ्रमेव / / 6 / / प्रियेति / प्रियाया अङ्गेषु, पन्थानं गच्छतीति पान्था नित्यपथिका, 'पन्थो ण नित्यम्' इति पथो णप्रत्ययः, पन्थादेशश्च / लोला सतृष्णा नलस्य दृक दृष्टिः कुचयो. निवृत्य निवृत्य आवृत्य भ्रमन्दी तयोः कुचयोः मृगनाभिलेपः कस्तूरिकालेपनमेव तमः तेन समासादितः प्राप्तः दिग्भ्रमो 'यया सेवेत्युत्प्रेक्षा / बभौतमां अतिश. येन बभौ / 'तिडल' इति तमप्प्रत्यये 'किमेत्ति' इत्यादिना तिवादामुप्रत्ययः // 6 // प्रिया दमयन्तीके अङ्गोंकी पथिक-रूपिणी नलकी चञ्चल दृष्टि स्तनोंपर कस्तूरीके लेपरूपी अन्धकारसे दिशाको भ्रान्तिको पायी हुई के समान, बारम्बार लौटकर स्तनों पर घूमती हुई अत्यन्त शोभमान हुई / [ अन्य भी कोई पथिक अन्धकारमें दिग्भ्रम होनेसे बारम्बार लौट कर एक ही स्थान में आ जाता है / नल दमयन्तीके अन्य अङ्गोंको- देखते हुए पुनः पुनः उसके स्तनोंको देखने लगते थे ] // 6 // विभ्रम्य तच्चाहानतम्बचके दूतस्य हक तस्य खलु स्खलन्ता। स्थिरा चिरादास्त तदुरुरम्भास्तम्भावुपाश्लिष्य करेण गाढम / 7 / / विभ्रम्येति / दूतस्य तस्य नलस्य दृक् दृष्टिः तस्याश्चारु नितम्ब एव च तस्मिन् विभ्रम्य भ्रान्त्वा स्खलन्ती चलन्ती तस्य ऊरू एव रम्भास्तम्भौ करेणांशुना हस्तेन च गाढमुपाश्लिप्य स्थिरा निश्चला सती चिरादास्त उपविष्टा खलु / 'आसे. लङ' / अत्र दृष्टिविशेषणसाम्याद् भ्रमणक्रीडाकारिवालकप्रतीतेः समासोक्तिः / तस्याश्चोरुस्तम्भाविति रूपकेण सङ्करः / बालका हि क्रीडया चिरं चक्रमुभ्रान्ता स्खलन्ती निकटस्तम्भादिकमवलम्ब्य चरति // 7 // उस दमयन्तीके सुन्दर नितम्बरूफी चक्रमें ( पक्षा०-चक्रतुल्य नितम्बनें, या नितम्ब समूहमें ) घूमकर दूत उस नलकी दृष्टि वहांसे स्खलित हो ( फिसल ) कर उस दमयन्तीके कदलो-स्तम्भके समान ( पक्षा०-कदली-स्तम्भरूप ) ऊरुद्वयको हाथसे (पक्षा०-किरणसे)