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________________ 308 नैषधमहाकाव्यम् / दानपात्रमधमणमिहैकग्राहि कोटिगुणितं दिवि दायि / . साधुरेति सुकृतैर्यदि कर्तुं पारलौकिककुसीदमसीदत् / / 62 // दानेति / साधुः सज्जनो वाधुषिकश्च / 'साधुः त्रिषु हिते रम्ये वाघुषो सजने पुमान्' इघि वैजयन्ती / इहास्मिन् लोके, एकं गृह्णातीत्येकग्राहि। विवि परलोके, एक कोटिगुणितं कोटिश आवृत्तं, दायि दातृ / 'वनधान्यहिरण्यानां चतुस्म्रिद्विगुणा मता' इति लोके वृद्धः परिमितिरस्ति / इदं स्वपरिमितदायीत्यर्थः। 'आवश्यकाध. मर्ययोणिनिः' इत्याघमण्ये णिनिप्रस्यपः। 'अकेनोभविष्यदाधमर्पयोः' इति षष्ठीप्रतिषेधाद् द्वितीया। दानपात्रं नामाघमण धनग्राहीति रूपकम् / 'उत्तमर्णाधमों द्वौ प्रयोक्तृग्राहको क्रमात्' इत्यमरः / मुहतैरेति यदि / तदा असीददविनश्यत् / परलोके भवं पारलौकिक, 'परलोकास्चेति वकण्यम्' इति भवार्थ ठकप्रत्ययः / कुसीदं वृद्धिजीवनं कर्तुः अलमिति शेषः / 'कुसीदं वृद्धिजीविका' इत्यमरः / 'नादत्त. मुपतिष्ठते' इति न्यायाददातः न किक्षिदामुष्मिकं सुखम् / दातुः पुनरनन्तरमिति सर्वथा अर्थिने दातम्यमिति भावः // 92 // एक लेकर स्वर्गमें करोड़गुना देनेवाले दानपात्ररूप अधमर्ण (ऋण लेनेवाले ) को पारलौकिक व्याजको विनाशरहित करने के लिये पुण्यों के द्वारा यदि कोई प्राप्त करता है तो सज्जन ही प्राप्त करता है। [इस लोकमें ऋण लेनेवाला कोई भी व्यक्ति मूल धन का व्याज दुगुना-चौगुना ही देता है तथा किसीके मर जानेपर वह मूल धन भी नहीं मिलता; किन्तु याचकरूप ऋण-ग्रहीता यहां पर एक लेकर 'पात्र के लिये दिया गया दान परलोक में अनन्तगुना प्राप्त होता हैं। इस शास्त्रीय वचन के अनुसार परलोक में करोड़ों गुना एवं कभी नष्ट नहीं होनेवाला म्याज देता है, अतएव ऐसा उत्तम ऋण-गृहीताको बड़े माग्यसे कोई सज्जन ही प्राप्त करता है / अत एव सत्पात्र में अवश्य दान देना चाहिये ] // 92 // एवमादि स विचिन्त्य मुहूर्त तानवोचत पतिर्निषधानाम् / अर्थिदुर्लभमवाप्य च हर्षाद्याच्यमानमुखमुलसितश्रि / / 63 // एवमादीति / स निषधानां पतिः नलः, एवमादि मुहूतमल्पकालं, विचिन्त्य, अथिमिदुर्लभं हर्षादुलसितश्रि वर्धमानश्रीकं, प्रसवमित्यर्थः / शैषिकस्य कपो वैभा. षिकरवानपुंसकत्वं हस्वस्वम् / याच्यमानमुखं दातृमुखं चावाप्य प्रसनमुखो भूत्वे. त्यर्थः, तानिन्द्रादीनवोचत / / 93 // ___ निषध देशवासियोंके राजा 'नल' इस प्रकार (इलो० 81..92 ) मुहूर्तमात्र विचारकर याचकों से दुर्लभ, याच्यमान (दाता ) के मुखको अत्यन्त शोमासम्पन्न ( हर्षित ) देखकर याचना करनेकी बात सुनकर नलके प्रसन्न मुखको देखकर ( 'हमारा कार्य सिद्ध होगा! इस आशासे हर्षित ) हुए उन (इन्द्रादि देवों) से बोले-॥ 93 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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