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________________ तृतीयः सर्गः। 151 यानी सभी अपने कामरहस्यको मुझसे कहती है, क्योंकि तियंत्र ( पक्षी आदि) किसीसे लज्जा नहीं करता, अतः तिर्यक्रसे से भी लज्जा नहीं करता। [ जिस प्रकार विश्वासपात्र बनियेंके यहां रक्खा हुआ परोहर किसी दूसरेके पास नहीं जाता है तथा सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार यदि तुम अपना अभिप्राय मुझसे कहोगी तब तो मैं उसे अन्यत्र किसी दूसरेसे प्रकाशित नहीं करूँगा, अपितु सुरक्षित रखूगा. इस कारण यदि तुम नलको चाहती होतो मुझपर विश्वास कर कहो ] // 43 // वार्ता च साऽसत्यपि नान्यथेति योगादरन्ध्र हृदि तां निरुन्धे / विरश्चिनानाननवादधौतसमाधिशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णः // 44 / / अथ स्वस्य एवं विधविश्वासहेतुत्वमाह-वातेति / विरिञ्जेब्रह्मणो नानाननैर्बहुमुखैर्वादेन व्याख्यानेन धौतस्य शोधितस्य समाधिशास्त्रस्य संयमविद्यायाः श्रुत्या श्रवणेन पूर्णकर्णःचतुर्मुखाभ्यस्तवानियमनविद्य इत्यर्थः। अहमिति शेषः / योगात् अरन्ध्रे निरवकाशे पूर्णे हृदि हृदये यां वाता निरन्धे, सा वार्ता लोकवार्ता किमुत. रहस्यवार्तति भावः / असत्यपि विनोदार्थ कथितापि, किमुत सतीति भावः / असत्यपि अन्यपुरुषान्तरं नैति न गच्छति / यथा ह्यसती दुश्चरी नीरन्ध्रस्थाने निरुद्धा नान्यमेति तद्वदिति भावः। अतोऽहमासां विश्वास्य इति पूर्वेणान्वयः। अत्र वार्तानिरोधस्य विरञ्चीत्यादिपदार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गभेदः॥४४॥ ___ ब्रह्माके चार मुल्के कथनसे पवित्र योगशास्त्रके सुननेसे परिपूर्ण कानोंवाला में छिद्र रहित (शत्रुसे अभेद्य या-योगाभ्याससे निर्दोष ) हृदयमें जिस (वार्ता) को रोकता (गुप्त रखता) हूँ, असत्य भी वह वार्ता दूसरे किसीके पास नहीं जाती अर्थात् दूसरा कोई उसे नहीं सुनता। [क्योंकि मैं किसी दूसरेसे असत्य भी उस बातको नहीं कहता हूँ / पक्षा०-जिसे प्रयत्नसे गुप्त स्थानोंमें रोकता हूँ, असती अर्थात् कुलटा भी वह स्त्री दूसरे किसी पुरुषके पास नहीं जाती ? दोषयुक्त हृदय वाला पुरुष ही किसीकी किसी भी बातको दूसरेसे कह देता है, निर्दोष हृदयवाला पुरुष किसीकी किसी भी बातको दूसरेसे कदापि नहीं कहता / ब्रह्माके चारो मुखोंसे कहे गये पदेश ( वेदवचन ) के सुननेसे मेरे कान परिपूर्ण हो गये हैं, अतएव उनके उपदेशमय योगाभ्याससे मेरा हृदय दोषरहित हो गया है, इस कारण मुझसे जो कोई भी व्यक्ति चाहे जैसी ( सत्य या असत्य ) बात कहता है, उसे मैं किसीसे भी नहीं कहता हूं, अतः तुम्हें मुझपर विश्वासकर अपना अभिप्राय बतलाना चाहिये / / 44 / / नलाश्रयेण त्रिदिवापभोगं तवानवाप्यं लभते बतान्या / कुमुद्वतीवेन्दुपारग्रहेण ज्योत्स्नोत्सव दुर्लभमम्बुजिन्याः / / 45 // अथ श्लोकद्वयेन अस्या नलानुरागमुद्दीपयति-नलेत्यादि / तवानवाप्यं नलपरिग्रहाभावात्त्वया दुरापं, 'कृत्यानां कर्तरि वेति षष्ठी तृतीयार्थे / त्रिदिवः स्वर्गः पृषोद
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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