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________________ 318 नैषधमहाकाव्यम् / मूल्य देकर उसे कदापि नहीं लेता है। मतः मैं भापका दूत-कर्म नहीं करूंगा। और याचक होकर मापने ब्राह्मण दधीचिके भी प्राण के लिये अर्थात ब्रह्महत्या करनेमें भी कुछ सङ्कोच नहीं किया, तब मुझ क्षत्रियकी पात ही क्या है?] // 111 // अर्थना मयि भवद्भिरिवास्यै कर्तुमर्हति मयापि भवत्सु | भीमजार्थपरयाचनघाटौ यूयमेव गुरवः करणीयाः // 112 // अर्थनेति / अस्यै दमयन्त्यै / तादर्षे चतुर्षी / मयि विषधे, भागिरिव ममापि भवरसु विषये अर्थना प्रार्थना कर्तुमहति कर्तव्येस्पः / अथ कथं कामुम्मुखारका. मिनीशिप्सेति चेयया भवता तथेत्याह-भीमजेति / भीमनार्या या परपाचनचाटुपरप्रार्थनारूपा नियोक्तिस्तस्यां यूयमेव गुरवः उपदेष्टारः करणीयाः। करोमि चेति भावः॥१२॥ इस दमयन्ती के लिए जिस प्रकार भापोगोंने मुझसे याचना की है, उसी प्रकार मैं आपलोगोंसे याचना करता हूँ। भीमकुमारी (दमयन्ती ) के दूसरेसे याचना एवं दोन बचन करने में (दीन वचन कहकर दमयन्तीको पाचना करनेमें ) भापळोग ही गुरु बनाने के योग्य हैं। [ यदि भापलोग देषता होकर मो मुझ जैसे एक सामान्य मनुष्यसे भी दमयन्ती के लिए याचना करते हैं, तब मैं एक साधारण मानव होकर दिक्पाल एवं देवाधिपति होने के कारण श्रेष्ठ भापलोगोंसे ही दमयन्ती की याचना करता हूं, क्योंकि नीति भी कहती है-'महाजनो येन गतः स पन्थाः' ] // 112 // अर्थिताः प्रथमतो दमयन्तीं यूयमन्वहमुपास्य मया यत् / / हीन चेद् व्यतियतामपि तद्वः सा ममापि सुतरां न तदस्तु // 113 // अथ प्रथमप्रार्थकरवाभिमाना, तर्हि स्वयमेव प्रथम इत्याह-अथिता इति / मया अन्वहमनुदिनम् / 'अनश्च' इत्यग्ययीभावः, समासान्तष्टच / यूपमुपास्य प्रथ. मतो दमयन्तीमर्थिताः / अर्थपतेवुहादिस्वादप्रधाने कर्मणि कः। इति यत् तत् , प्रथमप्रार्थनं म्पतियतां व्यतिक्रमतामपि / इणो लटः शत्रादेशः। वः हीन घेतहि सा होममापि सुतरां नास्तु मा भूत् // 113 // (यदि भापकोग यह कहें कि हमने दूत-कर्मके लिए पहले याचना की है, यह भी ठीक नहीं, क्योंकि ) पहले प्रतिदिन पूजा करके आपकोगोंसे मैंने दमयन्तीको याचना की है, इस ( दमयन्तीके लिए मेरी याचना ) बलान करनेवाले मापलोगोंको यदि हबा नहीं है तो वह ( लज्जा) मुझे भी स्वतः नहीं हो [ यदि भाप जैसे महान् दिक्पालोंको भी मेरी याचनाको पूर्ण न करने में लज्जा नहीं भाती है तो भक्त होनेके कारण मापलोगोंसे छोटे मुझको भी कब्जा भाना सचित नहीं क्योंकि गीतामें भी भगवान् कृष्णने कहा है'यबदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः'] // 11 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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