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________________ दशमः सर्गः। 561 सका, इसी कारण ( वाहनके अभावसे ) वायव्य दिक्पाल वायुदेव बिना वाहनके स्वयंवर में जाना अनुचित होनेसे दमयन्तीके साथ विवाह करने के लिये विदर्भ देशको नहीं गये, एकवार हारे हुए मृगका पुनः उसके सामने नहीं जाना उचित ही है ] // 12 // जातौ न वित्ते न गुणे न कामः सौन्दर्य एव प्रवणः स वामः। स्वच्छस्वशैलेक्षितकुत्सबेरस्तां प्रत्यगान स्त्रितरां कुबेरः // 13 // ननु श्रुतवित्तादिसम्पन्नः कुबेरः किमिति न यातस्तत्राह-जाताविति / कामः कुमार्याः, अभिलाषः, जातावभिजने कौलीन्ये इत्यर्थः / प्रवणो न तत्परः, वित्ते धने च न प्रवणः, गुणे श्रुतशीलादौ च न प्रवणः, किन्तु सौन्दर्य एव प्रवणः। कुतः ? स कामो वामो वक्रः, सुन्दरश्च इत्यर्थः / अत एव भणन्ति-'कन्या वरयते रूपमिति / तस्मात् स्वच्छे स्फटिकमयत्वाद्विम्बग्राहिणि स्वशैले कैलासे ईक्षिता कुत्सा गर्दा यस्य तद् बेरं शरीरं यस्य सः, सम्यगवगतस्वकौरूप्य इत्यर्थः। स कुबेरः स्त्रित. रामुत्कृष्टस्त्रीं त्रैलोक्यसुन्दरीमित्यर्थः / 'नद्याः शेषस्थान्यतरस्यामिति घादिपरो ह्रस्वः / तां दमयन्ती प्रति नाऽगात्, कोरूप्यलज्जया न गत इत्यर्थः // 13 // ____कामदेव या कुमारी-विषयक इच्छा ( श्रेष्ठ ) जातिमें नहीं तत्पर है, (श्रेष्ठ ) धनमें नहीं तत्पर है और (श्रेष्ठ ) गुणमें नहीं तत्पर है, किन्तु सुन्दरतामें ही तत्पर है; (क्योंकि ) वह काम वाम (प्रतिकूल, पक्षा०-सुन्दर ) है, ( ऐसा विचार कर ) निर्मल पर्वत ( स्फटिकके समान स्वच्छ कैलास पर्वत ) में अपने कुरूप शरीरको देखे हुए कुवेर स्त्री-श्रेष्ठ दमयन्तीके प्रति ( उसके साथ विवाह करने के लिये स्वयंवर में ) नहीं आये। [ 'कन्या वरयते रूपम्' वचनके अनुसार कन्या केवल सुन्दरताको ही प्रमुखता देती है, श्रेष्ठ जाति, धन या गुणको नहीं, अतः जाति, धन तथा गुणमें उत्तम होते हुए भी उत्तर दिक्पाल कुबेर सुन्दर नहीं होनेसे स्वयंवरमें नहीं आये ] // 13 // भैमीविवाहं सहतेऽस्य कस्मादध तनुर्या गिरिजा स्वभर्तुः / तेन वजन्त्या विदधे विदर्भानीशानयानाय तयान्तरायः // 14 // भैमीति / गिरिजा पार्वती स्वभर्तुरीश्वरस्य भैमीविवाहं कस्मात् सहते न कस्मादपीत्यर्थः / असहने कारणमाह-या भर्तुरद्धं तनुःसमांशपरत्वान्नपुंसकत्वं, 'पुंस्य?sधं समेंऽशके' इत्यमरः / भर्तुरर्धाङ्गभूता कथं सापत्न्यं सहत इति भावः / तेना. सहनेन निमित्तेन विदर्भान् जनपदान व्रजन्त्या तया देव्या ईशानस्येश्वरस्य यानाय विदर्भान् प्रति प्रयाणाय अन्तरायो विघ्नो विदधे विहितः। अचलत्यर्धे कथमन्तिरं चलेत् चलने वा शरीरं विशीर्यंत निष्क्रियं वा स्यात् / तस्मादीशानदिक्पालो नायात इत्यर्थः // 14 // जो पार्वती शिवजीका आधा शरीर है, वह ( सपत्नी होनेसे ) दमयन्तीके विवाहको कैसे सहन करती ? अर्थात् नहीं सहन करती; इसी कारण विदर्भ देशको जाती हुई उस
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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