________________ 114 नैषधमहाकाव्यम् / व्रजते दिवि यद्गृहावलीचलचेलाञ्चलदण्डताडनाः / व्यतरनरुणाय विश्रमं सृजते हेलियालिकालनाम् / / 80 // व्रजत इति / यस्यां नगयों गृहावलीषु चलाः चञ्चलाः चेलाञ्चलाः पताकाग्राणि ता एव दण्डास्तैः ताडनाः कशाघाता इत्यर्थः / ताः को दिवि व्रजते खे गच्छते हेलिहयालेः सूर्याश्वपङ्क्तेः 'हेलिरालिङ्गने रवावि'ति वैजयन्ती। कालनां चोदनां सृजते कुर्वते अरुणाय सूर्यसारथये विश्रमं स्वयं तत्कार्यकरणाद्विश्रान्ति 'नोदात्तोपदेशे'त्यादिना घनि वृद्धिप्रतिषेधः / व्यतरन् ददुः। अत्र हेलिहयालेश्चेलाञ्चलदण्डताडनासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः, तेन गृहाणामर्कमण्डलपर्यन्त. मौन्नत्यं व्यज्यत इति अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 8 // जिस ( कुण्डिनपुरी) की गृहपतियोंके चञ्चल पताकाग्र वस्त्ररूपी कोड़ेके आघात, आकाशमें गमन करते हुए तथा सूर्यके घोड़ोंको हाँकते हुए अरुणके लिए विश्राम देते हैं / [आकाशमें गमन करता हुआ सूर्य-सारथि अरुण सूर्यके घोड़ोंको कोड़ेसे मारकर हांकता है, अत एव इस कुण्डिनपुरीके ऊँचे-ऊँचे महलोंके ऊपर लगी हुई पताकाओंके वस्त्राग्रवायुसे चञ्चल होकर स्वयं घोड़ोंको प्रेरित करते ( हांकते ) हैं, जिससे अरुणको उतने समय तक घोड़ोंको नहीं हांकनेसे विश्राम मिल जाता है। इस कुण्डिनपुरीमें बहुत ऊँचेऊँचे महल पताकाओंसे सुशोभित हैं ] // 80 // क्षितिगर्भधराम्बरालयस्तलमध्योपरिपूरिणां पृथक् / जगतां खलु याऽखिलाद्भुताऽजनि सारैर्निजचिह्नधारिभिः // 81 / / क्षितीति / तलमध्योपरि अधोमध्योर्ध्वदेशान् पूरयन्तीति तत्पूरिणां जगतां पातालभूमिस्वर्गाणां पृथगसङ्कीर्णं यानि निजानि प्रतिनियतानि निजचिह्नानि निध्यन्नपानस्रकचन्दनादिलिङ्गानि धारयन्तीति तद्धारिभिः तथोक्तैः सारैरुस्कृष्टैः तितिकुहरे धरायां भूपृष्ठे अम्बरे आकाशे च ये आलया गृहाः तैः भूम्यन्तर्बहिः / शिरोगृहैरित्यर्थः।या नगरी अखिला कृत्स्ना अद्भुता चित्रा अजनि जाता / 'दीपजने'त्यादिना जनेः कर्त्तरि लुङ्, च्लेश्चिणादेशः / अत्र क्षितिगर्भादीनां तलमध्योपरि जगत्सु सतां तञ्चिह्नानाञ्च यथासंख्यसम्बन्धात् यथासंख्यालङ्कारः। एतेन त्रैलोक्यवैभवं गम्यते // 81 // ___ जो ( कुण्डिनपुरी ] पृथ्वीके नीचे ( पाताल ), पृथ्वी पर ( मर्त्यलोक ) और आकाश (स्वर्गलोक ) में स्थिर पाताल लोक, मर्त्यलोक और स्वर्गलोकको पूर्ण करनेवाले लोकोंके पृथक्-पृथक् अपने चिह्नों ( पाताललोकके कोष, भूतल मर्त्यलोकके अन्न-पान तथा आकाश = स्वर्गलोकके पुष्पमाला; चन्दनादि रूप ) को धारण करने ( सारभूत पदार्थों) से सबसे आश्चर्यजनिका प्रतीत होती थी। ( जिस प्रकार पाताल लोक ( भूमिके भीतर-तहखानों) में रत्न-सुवर्णादि कोष, भूतल पर अन्नादि तथा आकाश ( ऊपर ) में पुष्प-माला-चन्द