________________ 554 नैषधमहाकाव्यम् / [ शास्त्रादि अभ्यास तथा योग आदिके द्वारा संसारके आवागमन को दूर करने में समर्थ शानको पाया हुआ योगी अपनेको स्वप्रकाश सच्चिदानन्दस्वरूप 'अहं ब्रह्मास्मि' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ। ऐसा जान लेता है, और वैसा जानकर पूर्व संस्कारोंसे या प्राप्त ब्रह्मशानसे सत्त्वादि गुणत्रयरूप एवं संसारोत्पादिनी अनादि अविद्याको पृथग्भूत जानकर 'मैं पहले मनुष्य था' इत्यादि जानता है और इस प्रकार आत्मा तथा प्रकृति को विवेकके द्वारा जानकर बातें करता है, उसी प्रकार नलने दमयन्तीके विलापादिसे उन्मादित होकर पहले दूतधर्मको भूल कर बोलते हुए जब नाम बतलाकर अपना परिचय दे दिया, तब दूत-सम्बन्धी संस्कारके फिर उबुद्ध होनेसे दूतोचित वचन बोलने लगे] // 121 // अये मयात्मा किमनिहतीकृतः किमत्र मन्ता स तु मां शतक्रतुः / पुरः स्वभक्त्याथ नमन् हियाविलो विलोकिताहे न तदिनितान्यपि / __ अये इति / अये इति विषादे / 'अये विषादे क्रोधे च' इति विश्वः / मया आत्मा स्वरूपं किं किमर्थमनितीकृतः प्रकाशितः, अत्रात्मप्रकाशने स शतक्रतुरिन्द्रस्तु मां कि मन्ता मस्यते / अथ पुरोऽग्रे स्वभक्त्या नमन् प्रणमन् हिया आविलः कलुषः सन् तस्येन्द्रस्येजितानि चेष्टितान्यपि न विलोकिताहे न विलोकयिष्यामि / लुटीट् / तन्मु. खमवलोकितुमपि नोत्सहे इत्यर्थः // 122 // ____ अरे ! मैंने अपने स्वरूपको क्यों प्रकाशित कर दिया अर्थात् 'मैं नल हूं' ऐसा दमयन्ती को क्यों जना दिया ( यह तो बड़ा अनुचित हो गया ) इस (मेरे दूतकर्मके) विषयमें शतक्रतु (इन्द्र, पक्षा०-सैकड़ों अर्थात् बहुत अधिक क्रोध करनेवाले) क्या मानेंगे ? अर्थात्मुझे अपने दूत-कर्मसे भ्रष्ट ही मानेंगे पहले ( दूत कर्मको स्वीकार करते समय ) तथा इस समय ( अपना कर्तव्यपालन न करनेके कारण ) लज्जासे नम्र मैं उनकी चेष्टाओं (क्रोध. जन्य भ्रमण आदि विकारों ) को भी नहीं देगा, दुःख है / [ कर्तव्यसे भ्रष्ट होने के कारण में इन्द्र के सामने लज्जासे मुख भी ऊपर नहीं उठा सकूँगा। लोकमें भी कर्तव्यभ्रष्ट दास स्वामीके सामने मुख नहीं उठाता ] / / 122 / / स्वनाम यन्नाम मुधाभ्यधामहं महेन्द्रकायं महदेतदुमितम् | हनूमवाद्यैर्यशसा मया पुनर्विषां हसैदूतपथः 'सितीकृतः // 123 // स्वेति / यद्यस्मात् मुधा वृथैव स्वनाम अभ्यधान्नाम ? अवोचं खलु ? तन्महदे, तन्महेन्द्रकार्यमुज्झितं त्यक्तम् / अहो हनूमदाचैः दूतपथो यशसा सितीकृतो धव. लीकृती मया पुनर्विषां हसैहोसः, "स्वनहसोर्वा" इत्यप्प्रत्ययः / सितीकृतो धवली. कृतः। यशोवद्धासस्यापि धवलस्वादिति भावः। विश्वेश्वरीये तु हासस्य धावल्येऽपि शत्रुहासस्य मालिन्यापादकत्वादित्याशयेन मेचकीकृतमिति व्याख्यातम् / "सितो 1. "शितीकृतः" इति पाठान्तरम् /