________________ 366 नैषधमहाकाव्यम्। प्रकार रस्सी, घड़ा और गम्भीर कुएको पाकर भी खड़गधारी पुरुषोंसे राजकीय कृएके सुरक्षित रहनेसे मनुष्यकी प्यास शान्त नहीं हो सकती, उसी प्रकार इन रोमावली आदिके कपड़ेसे ढके रहने के कारण मेरी दर्शनेच्छा पूरी नहीं होती : अथवा-रोमावली आदि यदि कपड़ेसे ढके नहीं रहते तो उन्हें देखकर ( नग्न परस्त्रीको देखनेका शास्त्रों में निषेध होनेसे ) विराग हो जाता, अतः इनका कपड़ेसे ढका रहना ही अच्छा है / दमयन्तीकी रोमावली रस्सीके. समान लम्बी, स्तन घड़े के समान बड़े तथा नाभि कूएके समान गहरी है और कामुक पुरुष की कामतृष्णाको दूर करनेवाले हैं ] 11 84 // उन्मूलितालानबिलाभनाभिश्छिन्नस्खनच्छालरोमदामा। मत्तस्य सेयं मदनद्विपस्य प्रस्वापवप्रोचकुचास्तु वास्तु // 5 // उन्मूलितेति / उन्मूलितमुत्पाटितमालानं स्तम्भो यस्मात् बिलात् तद्विलं तदाभा तन्निभा नाभिर्यस्याः सा / छिन्नं त्रुटितं स्खलच्छवलमिव रोमदाम रोभाव. लियस्याः सा / प्रस्तापस्य वो निद्राहीं मृत्कूटाविव उनौ कुचौ यस्याः सा इयं दमयन्ती मत्तस्य मदनद्विपस्य वास्तु वसतिरस्तु स्यात् / औपम्यगर्भविशेषणं रूप. कम् // 85 // __(मदमत्त हाथीस ) उखाड़े गये बाँधनेके खूटके बिलके समान ( गहरी) नाभिवाली, टूटकर पड़ी हुई लोहेकी शृङ्खला ( हाथी बाँधनेका सीकड़ ) के समान रोमावली वाली और ( उस मत्त गजके ) सोने के लिये मिट्टीकी ढेरके बनाये चौतरेके समान ऊँचे स्तनोंवाली यह दमयन्ती मतवाले कामदेवल्प हार्थीका घर है। [ दमयन्तीकी नाभि बहुत गम्भीर, रोमावली लोहेकी शृङ्खलाके समान लम्बी और ऊँचे 2 स्तन साक्षात् कामदेवके स्थिर निबासस्थान हैं ] // 85 // रोमावलिभ्रकुसुमैः स्वमौर्वोचापेषुमिर्मध्यललाटमूहिन / व्यस्तैरपि स्थास्नुभिरेतदीयजत्रः स चित्रं रतिजानिवीरः // 86 // रोमावलीति / रतिर्जाया यस्य स रतिजानिः कामः स एव वीरः / 'जायाया नि। मध्ये ललाटे मूनि न मध्यललाटमूनि / प्राण्यङ्गत्वात् द्वन्द्वे नपुंसकता। तस्मिन् व्यस्तरसंहितः स्थास्नुभिः स्थायिभिः / 'ग्लाजिस्थश्च स्नुः / एतदीये रोमावली च भ्रवौ च कुसुमानि च तैरेव स्वस्व मौर्वीचापमिषवश्व तै. जेतैव जैत्री जयशीलः / प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण प्रत्ययः / चित्रं भिन्नदेशस्थैरपि चापादिभिर्विजयत इत्याश्चर्यमित्यर्थः / अत एव विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः / / 86 // ___1. क्वचिदेतदर्थकमेवाधस्तनं पचं दृश्यते "पाठान्तरमिदम्, पूर्वश्लोकेनैव गता. र्थत्वात् ; एवमङ्केऽपि न पठन्ति" इति सुखावबोधास्यव्याख्याकारो जिनराजः। तत्पधं यथा पुष्पाणि बाणाः कुचमण्डनानि ध्रुवौ धनुर्भालमलङ्करिष्णु / रोयावलीमध्यविभूषणं ज्या तयापि जेता रतिजानिरीशः // " इति /