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________________ 457 अष्टमः सर्गः। 'निजे सृजास्मासु भुजे भजन्त्यावादित्यवर्गे परिवेषवेषम् / 'प्रसोद निर्वापय तापमङ्गैरनङ्गलोलालहरीतुषारैः // 12. निज इति / हे भैमि ! निजे स्वीये भुजे बाहू आदित्यवर्ग सुरवर्गे सूर्यवर्ग चास्मासु परिवेषस्य वेष्टनस्य सूर्यपरिधेश्च वेषमाकारं भजन्त्यो सृज कुरु / मालिने स्यर्थः / 'परिवेषो रवेः पार्श्वमण्डले वेष्टने तथा' इत्यजपालः। प्रसीद प्रसन्ना भव अनअलीलालहरीभिर्मदनविहारोर्मिभिः तुषारैः शीतलैरङ्गैस्तापं निर्वापय शमय // 12 // तुम अपना भुजाओंको आदित्य समूह (देव-समूह, पक्षा०-सूर्य-समूह) हमलोगोंमे परिवेष (वेष्टन, पक्षा०—सूर्यमण्डलका घेरा) को शोभावाली बनाओ। (पाठा०-यदि हमलोगोंपर तुम्हारी कृपा है तो आवो, शीघ्र अङ्कपाली (कण्ठमें बाहुको वेष्टितकर आलिङ्गन ) को दो) प्रसन्न होवो, (पाठा०-हे सुन्दर अङ्गोंवालो) काम-लीलाकी तरङ्गोंसे शीतल ( अपने ) अङ्गोंसे (हमलोंगोके कामजन्य ) सन्ताप जो ठण्डा करो। [ सूर्य-समूहमें परिवेषका होना, तथा तरङ्गोंकी शीतलतासे सन्तापका शान्त होना उचित ही है / सकाम तुम्हारे शरीर-स्पर्शसे हमलोगोंका सन्ताप दूर हो जायेगा, अतः अविलम्ब प्रसन्न होकर हमलोगोंका आलिङ्गन करो] / / 92 // दयस्व नो घातय नैवमस्माननङ्गचाण्डालशरैरदृश्यैः / / भिन्ना वरं तीक्ष्णकटाक्षबाणैः प्रेमस्तव प्रेमरसात्पवित्रैः / / 93 / / दयस्वेति / हे भैमि ! नोऽस्माकं दयस्व अस्माननुकम्पस्वेत्यर्थः / “अधीगर्थद. येशां कर्मणि" इति षष्ठी / अदृश्यैरलक्ष्यैरनङ्ग एव चाण्डालस्तस्य शरैरेवमस्मान् न घातय न मारय / किन्तु प्रेमैव रसोऽनुरागो जलं च तस्मात्पवित्रैः शुद्धस्तव तीक्ष्णैः कटारेव बाणैर्भिन्ना विदारिताः सन्तःप्रेमः म्रियामहे / प्रपूर्वादिणो लहुत्तमबहुवच. नम् / वरं मनाक प्रियम् / जीवनासम्भवे वरं चाण्डालहस्तमरणात्तीर्थमरणमिति भावः॥ 93 // (तुम ) दया करो, अनङ्ग ( काम, पक्षा०-शरीरहीन होनेसे अदृश्य (रूप चाण्डालके अदृश्य बार्णोसे हमलोगोंको मत मरवावो / तुम्हारे प्रेमरस ( पक्षा०-जल) से पवित्र ( पूर्ण, पक्षा०-शुद्ध ) तीक्ष्ण कटाक्षरूप बाणोंसे विदीर्ण हमलोग भले ही (या अच्छी तरह ) प्रसन्न होंगे। [ चाण्डालके अपवित्र बाणोंसे मरनेकी अपेक्षा जलके द्वारा धोनेसे पवित्र तीक्ष्ण बागेसे मरजाना हमलोग अच्छा मानते हैं / तुम्हारे विरहमें हमलोग अदृश्य काम-बाणोंसे आहत हो रहे हैं, अतः वैसा न करके तुम स्वयं ही प्रत्यक्षमें आकर प्रेमपूर्ण तीक्ष्ण कटाोंसे हमलोगों पर प्रहार करो, उस सानुराग तीक्ष्ण कटाक्षप्रहारसे हमलोग (मरकर) बहुत प्रसन्न होंगे। लोकमें भी किसीसे प्रेरित 1. "अनुग्रहोऽस्मासु यदि त्वदीयस्तदेहि देहि द्रुतमकपालीम्" इति पादयस्थाने कचित्पाठः / 2. "तन्वति" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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