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________________ 111 द्वितीयः सर्गः। भूपस्य भुजेन पालिता हिमशैलोपमैः सौधेः राजिता मजुमनोज्ञा असौ पूर्वोक्ता नगरी कुण्डिनपुरी पतगस्य हंसस्य दृक्पथं जगाम, स तां ददशेत्यर्थः / अत्र यम. काण्यानुप्रासस्य हिमशेलोपमेति, उपमायाश्च संसृष्टिः // 73 // ___ भू-विजयी भीम ( राजा ) के बाहुसे सुरक्षित तथा कैलास पर्वतके समान महलोंसे शोभित मनोहर इस ( कुण्डिनपुरी ) नगरीकों पक्षो [ राजहंस ) ने देखा / [ कैलास पर्वत भी भूविजयी तथा शत्रुके लिये भयङ्कर (शिवजी ) के बाहुसे पालित है / जो 'धराजिता' है, उसका अपराजिता होनेसे विरोध आता है जिसका परिहार उक्त अर्थ से समझना चाहिये] / / 73 // दयितं प्रति यत्र सन्ततं रतिहासा इव रेजिरेभुवः / / स्फटिकोपलविग्रहा गृहाः शशभृद्रितनिरङ्कभिनयः / / 7 / / __ तां वर्णयति-दयितमिति / यत्र नगयाँ स्फटिकोपलविग्रहाः स्फटिकमयशरीरा इत्यर्थः / अत एव शशभृद्त्तिनिरङ्कभित्तयः शशाङ्कशकलनिष्कलङ्कानि कुड्यानि ये. षान्ते 'भित्तं शकलखण्डे वे'त्यमरः, भिदेः किप्प्रत्ययः / 'भित्तं शकलमित्यादि निपातनात् 'रदाभ्यामि'त्यादिना निष्ठानस्वाभावः / गृहाः दयितं भीमं प्रति सन्ततं भुवः भूमेर्नायिकायाः रतिहासाः केलिहासा इव रेजिरे इत्युत्प्रक्षा // 74 // __ ( अब इकतीस श्लोकों ( 2074-105 ) से कुण्डिननगरोका वर्णन करते हैं-) जिस (नगरी ) में स्फटिकमणिके बने हुए तथा चन्द्रमाके टुकड़े के समान निकलङ्क दीवालवाले घर पति ( राजा भीम ) के प्रति निरन्तर प्रवृत्त (नायिकारूपिणी) पृथ्वीके रतिकालके हासके समान शोभते थे // 74 // नृपनालमणागृहविषामुपधेयत्र भयेन भास्वतः / शरणाप्तमुवाम वासरेऽप्यसदावृत्त्युदयत्तमं तमः / / 75 / / नृपेति / यत्र नगर्यां तमोन्धकारः भास्वतो भास्करात् भयेन नृपस्य ये नीलमणीनां गृहाः तेषां विषः तासामुपधेश्छलादित्यपह्नवभेदः / 'रत्नं मणियोरि'त्यमरः / 'कृदिकारादक्तिनः' इति ङीष् / शरणाप्तं शरणं गृहं रक्षितारमन्वागतं 'शरणं गृहरक्षित्रोरि'त्यमरः / वासरे दिवसेऽप्यसदावृत्ति अपुनरावृत्ति किचोदयत्तममुद्यत्तम सदुवास // 75 // जिस ( नगरी ) से राजा (भीम ) के इन्द्रनीलमणि (नोलम) के बने हुए महलोंके कपटसे आवृत्तिहीन उदयको प्राप्त होता हुआ अर्थात् निरन्तर बढ़ता हुआ अन्धकार मानो सर्यके भयसे दिनमें भी शरणके लिए निवास करता था। [ अन्यत्र रात्रिमें ही अन्धकार रहता है, दिनमें नहीं, किन्तु इस कुण्डिन नगरीमें ऐसा ज्ञात होता है कि राजा भीमके नीलम मणियोंसे बने हुए महलोंकी कान्तिके बहानेसे सूर्यके भयसे शरणके लिए आकर यहां निरन्तर बढ़ता हुआ अन्धकार निवास करता है। लोकमें भी किसीसे डरा हुआ 8 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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