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________________ सप्तमः सर्गः। श्रयणाखेतोः / समान एकः पतिर्यस्याः सा सपत्नी / “नित्यं सपरन्यादिषु" इति सीप नकारश्च, एतस्मादेव निर्देशारसमानशब्दस्य सभावः। तां लपी पमासमानं पद्मोत्सङ्गनिकेतनामवेक्ष्य तस्या लपम्या विजिगीषया जिताज पनविजयिन. मस्या आस्येन्दुमाननेन्दुं किं भजत इत्युत्प्रेक्षा / दुर्बलोऽपि वैरनिर्यातनार्थी प्रबल. माश्रयत इति भावः। सरस्वत्या विष्णुपत्नीत्वं पुराणप्रसिद्धम् / तथा स्वपिश्यते यथा पुरुषोत्तमस्य जगन्नाथस्य पाश्वेलचमीसरस्वत्यौ तयोः सुरतवादोपचारश्च // 49 // ___ सरस्वती एक विष्णु भगवाम्के आश्रयसे सपत्नी (सौत) लक्ष्मीको कमल-गृहवाली देखकर अर्थात् सपत्नी लक्ष्मीके सुन्दर कमलरूप गृहको देखकर उसको जीतनेकी इच्छासे कमल ( या चन्द्रमा) को जीतनेवाले इस दमयन्तीके मुखरूपी चन्द्रको सेवन करती है क्या ? / [ लक्ष्मी तथा सरस्वती दोनों ही विष्णु भगवान् की पत्नी होनेसे वे परस्परमें सपत्नी है, उनमें लक्ष्मीका निवासस्थान कमल है, अतएव सपत्नी लक्ष्मीके सुन्दर निवासस्थान कमलको देखकर सरस्वतीको स्वभावतः ईर्ष्या हुई कि 'मेरी सपत्नी लक्ष्मीका निवासस्थान सुन्दर कमल है, अतः उससे भी सुन्दर मेरा निवास स्थान होना चाहिए यह मनमें विचार आनेपर, चन्द्रोदय होनेपर कमलके सङ्कुचित होनेसे कमल-विजयी चन्द्रमाका भी विजेता दमयन्ती-मुखचन्द्रका सरस्वती सेवन करने लगी अर्थात् दमयन्तीके मुखमें निवास करने लगी। अन्य भी कोई स्त्री सपत्नीके ऐश्वर्यपर ईर्ष्या करके उससे अधिक ऐश्वर्य पाना चाहती है और उसे प्राप्तकर अधिक प्रसन्न होती है। सरस्वतीका वास दमयन्तीके मुखमें सर्वदा रहता है अर्थात् दमयन्ती बड़ी विदुषी नारी है ] // 49 // कण्ठे वसन्ती चतुरा यदस्याः सरस्वती वादयते विपश्चीम् / तदेष वाग्भूय मुखे मृगाक्ष्याः श्रोतुः श्रुतौ याति सुधारसत्वम् / / 50 / / कण्ठ इति / मृगाच्या अस्या भैग्याः कण्ठे वसन्ती नित्यसनिहिता, चतुरा सरस्वती विपञ्ची वीणां यद्वादयते वादयति तद्वादनमेव, स वीणाध्वनिरेवेत्यर्थः। मुखे वाग्भूय वाग्भूत्वा / अभूततद्भावे विः / “ऊर्यादिविडाचश्च" इति गतित्वात समासे क्त्वो ल्यबादेशः / श्रोतुः श्रुतौ श्रोत्रे सुधारसत्वं याति / व्यअकाप्रयोगाद् गम्योत्प्रेक्षा // 50 // इस दमयन्तीके कण्ठमें निवास करती हुई (वीणावादनमें ) चतुर सरस्वती जो 'विपश्ची'' नामकी अपनी वीणाको बजाती है, वही ( वह वीणावादन ही) मृगलोचनी दमयन्तीके मुखमें वचन रूपमें परिणत होकर सुननेवालेके कानमें अमृत रस बन जाता है। [इस दमयन्तीकी वाणी वीणाके समान मधुर एवं सुननेवालोंको मोहित करनेवाली हैं]॥५०॥ 1. तदुक्तं वैजयन्तीकोषे 'विश्वावमोस्तु महती तुम्बुरोस्तु कलावती। महती नारदस्य स्यात्सरस्वत्यास्तु कच्छपी // " इति / 24 30
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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