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________________ नैषषमहाकाव्यम् / विलोकितास्या मुखमुन्नमय्य किं वेधसेयं सुषमासमाप्तौ / धृत्युद्भवा यछिमबुके चकास्ति निम्ने मनागङ्गुलियन्त्रणेव / / 51 / / विलोकितेति / इयं दमयन्ती, सुषमायाः परमशोभानिर्माणस्य समाप्तौ वधसा अस्या मुखमुन्नमय्य विलोकिता / अस्याः सौष्ठवपरीक्षार्थमवलोकितमुखी किमित्यु. स्प्रेक्षा / कुतः ? ययस्मात् , मनाङनिम्ने ईषन्नते चिबुके अधरोष्ठाधःस्थमुखावयवे 'ओष्ठस्याधश्विबुकम्' इति हलायुधः। पृत्युनवा निपीस्यग्रहणसम्भवा, अल्गुलेः यन्त्रणा मुद्रणेव चकास्ति अङ्गुष्ठपदमिव भातीत्यर्थः / अङ्गुष्ठानं चिबुकाग्रे निधाय इतरागुलीभिरधोनिवेशिताभिरुन्नमय्य मुखमपश्यविवेति भावः // 51 // ____ अत्युत्कृष्ट शोभाके पूरा होनेपर ( अतिश्रेष्ठ शोभासामग्रियोंसे इस दमयन्तीको बना लेने पर ) ब्रह्माने उठाकर दमयन्तीके मुखको देखा है क्या ? ( अथवा-......"इस दमयन्तीके मुखको उठाकर देखा है क्या ?) जो थोड़े गर्तयुक्त अर्थात् कुछ दबे हुए ठुढीमें ग्रहण करनेसे उत्पन्न अङ्गुलि ( अंगूठेका निपीडनजन्य ) चिह्न शोभित हो रहा है। [जिस प्रकार कोई कारीगर किसी वस्तुको पूरा बना लेनेपर उसे धीरेसे उठाकर देखता है कि 'यह मेरी रचना सुन्दर हुई या नहीं' और उसमें सरसता अर्थात् तत्कालका बना होनेसे आईता रहनेसे बहुत धीरेसे उठाने या छ्नेपर भी थोड़ा-सा चिह्न पड़ जाता है या वहां वह वस्तु कुछ दब जाती है, उसी प्रकार ब्रह्माने भी परमशोभा सामग्रियोंसे दमयन्ती की रचनाकर इसके मुखको धीरेसे उठाकर सुन्दरताका परीक्षण ( जांच ) किया है, यही कारण है कि इसकी ठुड्ढी (मुखका निचला भाग) में थोड़ा-सा गढा हो (दव ) गया है। दमयन्तीका अङ्ग इतना सुकुमार है कि वह एक अङ्गुलिके निपीडन (दबाव ) को नहीं सह सकता, उसमें सदाके लिये चिह्न पड़ जाता हूँ / ठुड्ढीके नीचे मध्य भागमें थोड़ा-सा गढ़ा (दवा) रहना सामुद्रिक शास्त्र में शुभ लक्षण माना गया है ] // 51 / / प्रियामुखाभूय सुखी सुधांशुवसत्यसो' राहुभयव्ययेन / इमा दधाराधरविम्बलीलां तस्यैव बालं करपक्रवालम् / / 50 / / प्रियेति / असौ सुधांशुः प्रियामुखीभूय भैमीमुखं भूत्वा राहोर्विधुन्तुदात् भवव्ययेन भयनिवृत्या सुखी वसति / तस्य सुधांशोरेव बालं प्रत्याग्रं करचक्रवाल अंशुमण्डलमिमां दृश्यमानां अधरबिम्बलीलां दधार। अधरबिम्वं भूस्वा तिष्ठती. त्युत्प्रेक्षयोः संसृष्टिः // 52 // * यह चन्द्रमा प्रिया (दमयन्ती) का मुख होकर राहुसे निर्भय होनेसे सुखी होकर रहता है, उसी ( चन्द्रमा ) का बाल ( उदयकालीन ) किरण समूह अधर-बिम्बको लीला ( शोभा, पक्षा०-क्रीडा ) को धारण कर लिया है। [ जिस प्रकार कोई व्यक्ति शत्रुके भयसे सपरिवार अपना रूप बदलकर सुखपूर्वक कहीं निवास करता है, उसी प्रकार किरणरूप परिवारके 1. "वसत्ययं” इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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