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________________ सप्तमः सर्गः। 365 कणेति / नेत्रगुत्या नेत्रकान्स्या निर्जितेनैतदीयेन भैम्याः संबन्धिना कर्णोत्पले. नापि सनाथं सहकृतं मुखं लभेत यदि, ततः कृतार्था कुरङ्गी स्वचक्षुषी किंकुरुते कद करोतीत्यर्थः। स्वमुखस्य तान्नेनसानाध्यं तावदास्तां तन्नेत्राभिभूतकोत्पल. सानाय्येऽपि तावत्यैव यत्या स्वचषी उपेक्षेत / तदपि दुर्लभमिति भावः // 30 // ___ मृगी दमयन्तीकी नेत्रशोमासे पराजित इस दमयन्तीके कर्णोत्पल ( कानोंके भूषण कमल ) से भी सनाथ ( युक्त, पक्षा०-नाथ सहित ) मुखको यदि पा जाय तब कृतकृत्य हुई वह मृगी अपने नेत्रोंको कदथित अर्थात् उपेक्षित कर देगी ( अथवा-नेत्रोंको क्या करेगी अर्थात् उसका त्याग ही कर देगी)। [दमयन्तीके नेत्रोंकी समानता करना तो मृगीके नेत्रों के लिये बहुत दूर की बात है, दमयन्तीके नेत्रोंसे पराजित कर्णभूषणरूप कमलोंकी भी समानता नहीं कर सकती हैं, अतः यदि उन कर्णभूषणभूत कमलोंसे भी उनका मुख सनाथ हो जाय तो वे अपनेको कृतकृत्य समझकर नेत्रोंकी उपेक्षा कर देंगी ] // 30 // त्वचः समुत्सायें दलानि रीत्या मोचात्वचः पञ्चषपाटनानाम् / सारैहोतविधिरुत्पलौघादस्याम दीक्षणरूपशिल्पी // 31 // स्वच इति / बिधिर्विधाता मोचारवचो रम्भारवचः। 'रम्भा मोचांशुमत्फला'इस्यमरः / पञ्च षड् वा पञ्चषाणि / “संख्ययाव्यय" इत्यादिना बहुधीहौ / “बहुव्रीही संख्येय" इति समासन्तो डच / तेषां पाटनानां विदलनानां रीत्या प्रकारेण तावत्पाटयित्वेत्यर्थः / त्वच एव दलानि समुत्सार्य पञ्चषाणि बाह्यावरणान्यपनी. येत्यर्थः / ततो गृहीतैस्तथोत्पलौघाच गृहीतैस्सारैः सितासिवर्णैर्लावण्यद्रव्यैः अस्यां दमयन्त्याम् ईक्षणरूपशिल्पी अक्षिसौन्दयंनिर्माता अभूदित्युप्रेक्षा // 31 // ब्रह्मा केलेके छिलकेसे क्रमशः पांच या छ छिलकों और कमल-पुष्पोंसे क्रमशः पांच या छः पत्रोंको अलग कर केलेसे तथा कमल-समूहसे लिये गये सारभूत वस्तुओंसे इनके नेत्रोंको रमणीय बनानेमें कलाकार बन गये / [ब्रह्माने इस दमयन्तीके नेत्रोंके गौर वर्णको केलेके पांच-छः छिलकोंको अलगकर उसके अन्तःसारसे तथा कमलके बाहरी पांच-छः पत्तों ( दलों) को अलगकर दमयन्तीके नेत्रोंकी नीलिमाको बनाकर कुशल कलाकार हो गये / दमयन्तीके नेत्र कदलीगर्मके समान गौर वर्ण तथा कमलपत्रके समान नीलवर्ण है / / चकोरनेत्रैणगुत्पलानां निमषयन्त्रेण किमेष कष्टः। सारः सधोद्वारमयः प्रयत्नैर्विधातमेतत्रयने विधातः / / 32 / / चकोरेति / विधातुरेतन्नयने विधातुं प्रयत्नैः कर्तृभिः चकोरनेत्रयोरेणदृशोर्मूगाणोः उत्पलानां च सुधोद्गारमयोऽमृतनिष्यन्दमयः। एषोऽग्रे दृश्यमानः सारो रसो निमेषो निमीलनं तेनैव यन्त्रेण निष्पीडनसाधनेन कृष्टः आकृष्टः किमित्युत्प्रेक्षा इस दमयन्तीके नेत्रोंको बनानेके लिये ब्रह्माके प्रयत्नोंने अर्थात् ब्रह्माने प्रयत्नपूर्वक चकोरके नेत्र, मृगीके नेत्र तथा कमलोंके अमृतका झरना रूप सार ( श्रेष्ठ द्रव्य ) निमेषरूपी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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