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________________ नैषधमहाकाव्यम् / अधिक शोभाके विषयमें दिव्य परीक्षामें सम्पूर्ण कमल दमयन्तीके मुखसे पराजित हो गये, (अत एव ) मानो इस समय भी वे कमल पराजयसूचक पानीसे ऊपर स्थितिको नहीं छोड़ते अर्थात अब भी पानीके ऊपर हो रहते हैं। [दिव्य' परीक्षामों में जलसे 'दिव्य परीक्षा लेने का यह नियम है कि धनुर्धरके वाण छोड़ने पर उस बाणको लानेतक जो व्यक्ति नाभितक पानीके भीतर खड़े हुए मनुष्य का पैर पकड़े हुए डूबकर ठहरा रहता है वह विजयी होता है तथा पानी में डूबा हुभा जो व्यक्ति बाण लाने के पहले ही पानीके ऊपर सिरकर लेता है वह पराजित होता है। प्रकृतमें दमयन्तीके मुख तथा कमल में दिव्य परीक्षा करते समय कमलको पानीके ऊपर रहनेसे उसके पराजित होने की उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 27 // धनुषी रतिपञ्चबाणयोरुदिते विश्वजयाय तद्भवा / नलिके न तदुच्चनासिके त्वयि नालीकविमुक्तिकामयोः / / 28 / / धनुषी इति / तद्भवो विश्वजयायोदिते उत्पन्ने रतिपञ्चबाणयोधनुषी नून मित्यादिग्याकाप्रयोगादग्योस्प्रेक्षा, किञ्च तस्याः दमयन्याः उच्चनासिके उसतनासापुटे स्वयि नालीकानां द्रोणिचापशराणां विमुक्ति कामयेते इति तथोकयोः तयोः 'शीलिकामिभचयाचारिभ्यो ण' इति णप्रत्ययः, 'नालीकं पाखण्डेऽस्त्री नालीकः शर. शल्ययोरिति विश्वः / नलिके न द्रोणिचापे न किमिति काकुः / पूर्ववदुरप्रेक्षा // 28 // उस (दमयन्ती) के भ्रद्वय विश्वविजय करने के लिये रति तथा कामदेव के धनुष नहीं हैं क्या ? अर्थात् धनुष ही है, तथा हे राजन् ! उस ( दमयन्ती ) का उच्च दोनों नासिकायें तुम्हारे ऊपर नालीसे छोड़ने के इच्छुक बागद्य की दोनों नालियां नहीं है क्या ? अर्थात् दो नालियां ही है / ( या-..."कामदेवके मानों धनुष हैं ) // 28 // सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्थमृणालजिभुजा। अपि मित्रजुषां सरोरुड़ां गृहयालुः करलीलया श्रियः / / 26 // __ सरशीति / हे शूर ! जलदुर्गस्थानि मृणालानि जयत इति तजितौ भुजौ यस्याः सा मित्रजुषामसेविनां सुहृत्सलिलाना सहायकसम्पन्नामपीत्यर्थः / 'मित्रं सुहृदि मित्रोऽक' इति विश्वः / सरोकहां श्रियः शोभा सम्पदश्च 'न लोके त्यादिना षष्ठीप्रति षेधः, करलीलया भुजविलासेन भुजण्यापारेण वलिग्रहणेन च 'बलिहस्तांशवः करा' 'लीलाविलामक्रिययोरिति चामरः, गृहयालुः ग्रहीता गृह-ग्रहण इति धातोश्चौरा. दिकात् 'स्पृहिगृहीत्यादिना भालुच प्रत्ययः, 'अयामन्ते'त्यादिना रयादेशः। सा 1. एतदर्थ याज्ञवल्क्यस्मृतेन्यवहाराध्याये दिव्यप्रकरणं द्रष्टव्यं 'तुलाग्न्यापो विषं कोशो"....'हत्यारभ्य 'आचतुर्दशिकादह्रो......' (2 / 95-113) यावद् / तस्यैव मिताक्षरावीरमित्रोदयव्याख्याने च विशदतया वणितं तदिव्यप्रकरणमिति बोध्यम् / 2. 'नु' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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