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________________ नैषधमहाकाम्बम् / वायुओंसे, अथवा-धुतापतत्.......'पदमें 'आपतत्' पदच्छेद करके 'गिरते हुए के स्थानमें 'आते हुर' अर्थ समझना चाहिये ) पोडित ( पक्षा-कम्पित ) तथा बेग के लिये आययुक्त अर्थात् अतेवेगात अश्रुधाराले नालसहित कमडके समान नेपाली वह (दमयन्ती ) उस समय 'विप्रलम्भ' नामक शृङ्गार रस (पक्षा०-प्रोमके जल या निर्मल जल, या शोकरस ) का तडाग बन गयो थी / नेत्रले धाराप्रवाह अश्रु गिरनेते नेत्र कमलके समान, अश्रुधारा कमलनाल के समान वर्णित है, प्रोग्म ऋतु में पानोके कम रहने से कमलनाल दिखलायी पड़ता तथा जल निर्मल हो जाता है और वह सनाल कमल काम्पत होने लगता है। [ दमयन्ती उस समय कामगीड़ित होकर धारा-प्रवाह आंसू गिराती हुई रोने लगी ] // 86 // अयोध्रमन्ती रुरतो गक्षमा सप्तम्भमा लुपरतिः स्वजन्मतिः।। व्यधात्प्रियावातिविघातनिश्चयान्मृदनि दूना परिदेवितानि सा / / अथेति / अथ स्मरविकारोदयानन्तरं प्रियावाप्तिविघातस्य प्रियप्राप्तिप्रतिबन्धस्य निश्चयात् दूना परितप्ता "स्वादय ओदित" इत्योदिवातिदेशात् "ओदितश्च" इति दूडो निष्ठानत्वम् / अत एव सा दमयन्ती उभ्रमन्ती उन्मायन्ती रुदति आश्रगि मुन्नती गतवमा नष्टधैर्या ससम्भ्रमा सत्वरा लुसा रतिर्विषयान्तरस्पृहा यस्याः सा स्खलन्ती मतिस्तस्वावधारगशक्तिर्यस्याः सा सती मुनि परहृदयद्रावगानि परिरे वितानि विलापवचनानि व्यधात् / अय प्रियावाप्तिविघातप्रयुक्तचिन्ताविषादभावा उद्घामदय इत्युनुसन्धेयम् // 87 // इसके बाद प्रिय ( नल ) को प्राप्त नहीं होने के निश्चयबालो वह दमयन्ती, उन्मादित होतो हुई, रोतो हुई, दुःख सहने में असमर्था या धर्यहोन, ( जोवनको भारभूत मानने से ) बड़ाई हुई, (किसी अन्य विषय ) स्नेह न करतो हुई, किंकर्तव्यमूह तथा परितप्त होती हुई सुननेवालोंको दया करनेवाला विलाप करने लगा // 87 // स्वरस्व पञ्चेबुहुताशनात्मनस्तनुष्य मदस्मवयं यशश्वर / विधे ! परेहाफलभक्षणतो पताच तृष्यन्नसुभिर्ममाफलैः / / 5 / / अथ त्रयोदशभिः श्लोकैः परिदेवितान्येवाह-स्वरस्वेत्यादि / हे पश्चेषुहुताशन ! कामाग्ने ! स्वरस्व स्वरितो भव / मदस्मनाबयं राशिमेवात्मनस्ते यशश्वयं यशोराशि सनुन्ध विस्तारय स्त्रीवधख्याति सम्पादयेत्यर्थः। हे विधे! विधातः ! परेषामीहाफ. लस्य क्रियाफलस्य भक्षणे व्रती नियमो सन् न तु तपस्यन्तरवदन्यफलमतगवतीस्यर्थः / अयाफलै लानवाप्स्या निष्फलैर्ममासुभिः प्राणैः तृप्यन् तृप्तः सन् पत पतितो भव / स्त्रीवधपातकी भवेत्यर्थः // 8 // (अतिसन्तापकारक होनेसे ) हे कामरूप अग्नि ! शीघ्रता करो, मेरे भस्ममय ( मेरे चेतामें जल जानेसे भस्मबहुल ) कीर्तिसमूहको फैलावो, हे विधे! दूसरेको चेष्टाके फलको
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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