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________________ पञ्चमः सर्गः पूर्वपुण्यविभवव्ययलब्धाः सम्पदो विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिर्विधिदृष्टः // 17 // पूर्वति / पूर्वपुण्यविभवस्य व्ययेन लब्धाः सम्पदो विमृष्टाः विचारिताः विषय एव / सद्यः स्वोदयेन पुराकृतसुकृतनाशकत्वादिति भावः / तासु विपत्सु सम्पद्रपा. स्वापरसु / आसां सम्पदा, पात्राणां विद्याजातितपोवृत्तसम्पनानां पाणिकमलेश्वर्पणं दानमेव विधिरष्टः शास्त्राष्टा, शान्तिकविधिः शान्तिकर्मानुष्ठानम्, नष्टसुकृतादपि अत्युस्कृष्टसुकृतोत्पादनादिति भावः / अनेन बीजाङ्करन्याय उक्तः // 17 // पूर्व पुण्यैश्वर्यके व्ययसे मिली हुई अधिक सम्पत्तियों ( अथवा-लक्ष्मोरूप भार या लक्ष्मीका भार ) विचार करने पर विपत्ति ही हैं। उन विपत्तियों में इन सम्पत्तियों का सत्पात्रों के करकमलमें समर्पण करना ( देना) ही शास्त्र में देखा गया अर्थात् शास्त्रोक्त ( अथवाब्रह्माके द्वार। वेदों में देखा गया ) शान्ति के लिये विधान है। ( अथवा-सत्पात्रके हाथपर दान-सम्बन्धी ) जलका समर्पण" | [ कमल में लक्ष्मोका निवास रहना शास्त्र-प्रसिद्ध है. अत एव सत्पात्रके करकमलमें लक्ष्मीको समर्पण करने का अर्थ लक्ष्मीको उनके निवास स्थानपर बैठाकर उसे स्थिर करना है। अन्य भी व्यक्ति विपत्ति कालमें शास्त्रोक्त हवन दान आदि शान्तिक विधिका अनुष्ठान करते हैं ] // 17 // तद्विमृज्य मम संशयशिल्पि स्फीतमत्र विषये सहसाघम् | भूयतां भगवतः श्रुतिसारैरद्य वाग्भिाघमर्षणऋग्भिः // 18 // तविति / तत्तस्मात् , तन्त्र विषये अस्मिन्नथें, मम, संशयस्य शिविप तजनक, स्फीतं, प्रभृतम, अधमेनः, तन्मूलत्वानिमयाज्ञानस्येति भावः / यद्वा, संशयः शिल्पी जनको यस्य तदघं दुःखं, दुःखहेतुत्वात्संशयस्येति भावः। दुःखेनोव्यसनेष्वधम्' इति वैजयन्ती / सहसा विज्य निवळ, भगवतो वाग्मिरध श्रुति पारर्वेदसारैः कर्णामृ. तैश्च / अघमर्षणाग्भिः अधमनीभिः ऋग्भिः। 'त्रियाः पुंवत्' इत्यादिना पंचद्भावः। 'प्रत्यकः' इति प्रकृतिभावः। भुयताम् / भाने लोट / राज्ञामनागमनकारणमसंदिग्धं वहीत्यर्थः / अत्र मुनिदा वापरमाणस्य अघमर्षणत्वस्य प्रताघहरणोपयोगात् परिणामालङ्कारः / 'भारो प्यालय प्रकृतोपयोगित्वे परिणामः' इति लक्षणात् // इस कारण कानों में सुधाकर्षक अर्शद कर्ण-सुखकर (पक्षान्तर में-वेदों का मारभूत) मापके वचन इस समय, ( राजालोग युद्ध में वीरगति को प्राप्त कर स्वर्गमें क्यों नहीं आते ? ) इस विषय में बढ़े हुए तथा संशय पैदा करनेवाले ( अथवा -संशयका कारण बने हुए ) मेरे दुःख ( पक्षान्तर में-पाप) को सहसा दूर कर अघमर्षण-ऋक ( मेरे दुःख या पापको धाने अर्थात् साफ करनेवाले ऋमन्त्र, पक्षान्तरमें-ऋग्वेदोक्त 'अघमर्षण' नामक ऋचा-'ऋतश्च सत्यञ्चामीद्धा......) ऋ० 8848 ) हो / [ जैसे वेदोक्त
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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