________________ नैषधमहाकाव्यम् / पाठान्तरमें ऐसे (दुर्लभ मापलोगों के दर्शनरूप) फलों को देते हुए, मेरे पूर्वजों के पुण्य उत्कृष्ट हो रहे हैं 'परिणमन्ति फलं नः' पाठान्तरमें-ऐसे फलको परिणत होते हुए..."] // 95 // प्रत्यतिष्ठिपदिलां खलु देवीं कर्म सर्वसहनव्रतजन्म | यूयमप्यहह पूजनमस्या यन्निजैः सृजथ पादपयोजः / / 66 / / प्रतीति / इला देवीं भूदेवता, सर्वसहनं विश्वावमानसहनमेव व्रतं येन सा सर्व सहेति ल्यायते / तस्माज्जन्म यस्य तसज्जन्यमित्यर्थः / क्रियत इति कर्म सुकृतं (कर्तृ) प्रत्यतिष्ठिपत् प्रतिष्ठापयामास खलु / तिष्ठतेरित्' इति गौ चल्युपधाया इकारः / यद्यस्माद्ययमपि निजः पादैरेव पयोजैरिति रूपकम् / अस्पा इलायाः पूजनं पूजां सुजथ कुरुभ्वमित्यर्थः / अहहेत्यद्भुते // 96 // सबके भारको सहन करनेके व्रतसे उत्पन्न कर्म (पुण्य ) ने इस (पृथ्वी) देवीको निश्चय ही प्रतिष्ठायुक्त कर दिया, यह आश्चर्य है ? क्योंकि ( पृथ्वीको कमी मी स्पर्श नहीं करने वाले दिक्पालरूप ) भापलोग भी अपने चरण कमलोंसे इस ( पृथ्वी देवी ) का पूजन कर रहे हैं / [ पृथ्वीने सबके भारको सहन करनेका व्रत ग्रहणकर उससे उत्पन्न पुण्यसे देवी पदको प्राप्त किया, इसी कारण चरणसे पृथ्वीका स्पर्श नहीं करनेवाले आपलोग आज अपने चरण कमलसे देवीपद पर प्रतिष्ठित पृथ्वीको पूजा कर रहे हैं। [अन्य मी व्यक्ति किसी देवीका पूजन कमोंसे करता है इस वाक्यसे आपलोगोंको इस भूलोकमें आनेका क्या उद्देश्य है ? यह प्रश्न ध्वनित होता है ] // 91 // जीवितावधि किमप्यधिक यन्मनीषितमितो नरडिम्भात् / तेन वश्चरणमर्चतु सोऽयं ब्रूत वस्तु पुनरस्तु किमीक् // 67 // जीवितेति / इतो नरडिम्भान्मानुषशिशोः जीवितावधि प्राणान्तं ततोऽधिकं वा किमपि मनीषितमीप्सितं यद्वस्तु सोऽयं नरम्भिा , तेन वस्तुना, वश्चरणमर्चतु पूजयतु / ईगलभ्यं वस्तु पुनः किमस्तु किं स्याद्, व्रत // 97 // ___ इस मानव-बालकसे प्राणोंतक या इससे भी अधिक जो अमिरूषित ( आपलोगोंका) हो, उस ( अमिलषित वस्तु) से यह मानव-बालक आपलोगों के चरण का पूजन करे, किन्तु ऐसी वह वस्तु कौन-सी है ? कहिये / [ प्राणों तक या प्राणाधिक भी कोई वस्तु इस मानवबालक अर्थात् मुझसे जो वस्तु मापलोगोंको अभिलषित हो, निःसङ्कोच होकर मांगे, मैं साधारण मानव-बालक होकर भी उस वस्तुको आपलोगों के चरणमें समर्पित करूँगा / आप. लोग मुझसे क्या चाहते हैं ? यह बतलाइये, मैं उसे अवश्य दूंगा] // 97 // एवमक्तवति मुक्तविशङ्क वीरसेनतनये विनयेन | वक्रभावविषमामथ शक्रः कार्यकैतवगुरुगिरमूचे / / 68 //