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________________ नवमः सर्गः। 405 का त्यागकर आत्मनिन्दा कराना नहीं चाहता, इसी कारण अब तुम्हें भी मेरे नाम जाननेके लिए आग्रह नहीं करना चाहिये ] // 13 // अदोऽयमालप्य शिखोव शारदो बभूव तूष्णीमहितापकारकः / / अथाऽऽस्यरागस्य दधा पदे पदे वचामि हंसीव विदर्भजाददे // 14 // अद इति / अहितानामरीणामपकारकः अपकर्ता अन्यत्राहीनां तापकारकोsतिहिंसाकरः / श्यं नलः शरदि भवः शारदः, “सन्धिवेलाधतुनक्षत्रेभ्योऽण"। शिखी केकीव अदः इदं वचनमालप्य व्याहृत्य तूष्णीं बभूव। अथानन्तरमस्य वाक्यस्य सम्बन्धिनि पदे सुप्तिङन्तरूपे पदे विषये रागस्य श्रवणेच्छाया दधातीति दधा धरित्री प्रत्यक्षरं सुधास्त्रावित्वादविच्छिन्नतृष्णेत्यर्थः / “ददातिदधात्योर्विभाषा" इति दधातेरप्रत्यये श्लाविति द्विर्भावः, 'अजाद्यतष्टाप्' / अन्यत्र पदे पदे चरणद्वये आस्ये चन्चुपुटेरागस्य लौहित्यस्य दधा। 'राजहंसास्तु ते चन्चुचरणैर्लोहितैः सिता' इत्यमरः। विदर्भजा वैदर्भी हंसीव वचांस्याददे उवाचेत्यर्थः। शरदि निःशब्दाः शिखिनः राजहंसाः शब्दायन्ते तद्वदिति भावः // 14 // शत्रुओंका अपकारक ( शत्रुओंको मारनेवाले, पक्षा-भोक्ता होनेके कारण सर्पोको सन्तप्त करनेवाले ), शारद (निपुण, पक्षा०-शरत्कालीन ) मोरके समान ये नल यह वचन ( श्लो० 8-13) कहकर चुप हो गये। इस (नलके चुप होने ) के बाद इस (नल) के पद-पद ( सुबन्त-तिङन्तरूप प्रत्येक पद ) में अनुरागको धारण करनेवाली विदर्भेशकुमारी दमयन्ती ( पक्षा०--शरद् ऋतु आनेसे इस मयूर के चुप होनेके बाद मुख-राग (चोंचकी लालिमा) को प्रत्येक चरणों में धारण करती हुई हंसी अर्थात् राजहंसी ( राजहंसकामुख और पैर लाल होते हैं ) के समान वचनको ग्रहण किया अर्थात् बोली। [ वर्षा ऋतुमें मयूरकी बोली प्रिय होती है, शरद् ऋतुमें मयूरकी बोलीमें रूक्षता आ जाती है और वह शरद् ऋतुके आनेपर चुप हो जाता है तथा राजहंसी मधुर बोलने लगती है। यहां नलको मयूर तुल्य कहनेसे उनके वचनमें कुछ रूक्षता तथा दमयन्तीको राजहंसीतुल्य कहनेसे उसके वचनमें मधुरता सूचित की गयी है तथा नलके केवल अपना वंशमात्र ही बतलाकर मौन धारण करनेसे उनके वचनमें शरत्कालीन मयूरके समान रूक्षता और अग्रिम वचनोंमें नलकी प्रशंसा करते हुए ही पुनः नाम-विषयक प्रश्न करनेसे दमयन्तीके वचनोंमें शरत्कालीन राजहंसी-वचनके समान मधुरताका होना उचित ही है। तथा शरत्कालमें मयूरस्थानीय नलका उक्त प्रकारसे रूक्ष वचन बोलकर चुप होना और उसके बाद राजहंसीस्थानीय दमयन्तीका मधुर बचन बोलनेका आरम्भ करना भी उचित ही है ] // 14 // सुधांशुवंशाभरणं भवानिति श्रुतेऽपि नापैति विशेषसंशयः / कियत्सु मौनं वितता कियत्सु वाङ्महत्यहो वञ्चन चातुरो तव / / 15 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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