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________________ 356 नैषधमहाकाव्यम् / विस्तारो यया सा लावण्यसीमा सौन्दर्यसर्वस्वमिमां दमयन्तीम् उपास्ते सेवते अस्यामेव वर्तत इत्यर्थः // 12 // (ब्रह्माने कहींसे ) प्राप्त नवीन शरीर-रचनाकी विद्याको इस दमयन्तीमें नहीं व्यक्त किया है क्या ? अर्थात् अवश्यमेव व्यक्त किया है, क्योंकि अङ्ग अङ्ग में वर्तमान रहनेसे स्पष्ट ज्ञात होती हुई अधिकतावाली लावण्यकी सीमा इस दमयन्तीकी सेवा करती है अर्थात् दमयन्तीके प्रत्यगामें अधिकतम सौन्दर्यसे ज्ञात होता है कि ब्रह्माने इसके लिये कहींसे नयी शरीर-रचना की विद्या प्राप्त की है / ( अथवा-इस दमयन्तीके प्रत्यङ्गमें स्पष्टतः वर्तमान आधिक्यवाली सौन्दर्य-सीमाने इस दमयन्तीमें कहींसे प्राप्त नवीन शरीर-रचनाकी विद्या को नहीं प्रकट किया है ? अर्थात् अवश्य ही प्राप्त किया है। क्योंकि...''इसकी सेवा करती है / अथवा-इस दमयन्तीके प्रत्यङ्गमें स्पष्टतः वर्तमान आधिक्य वाली सौन्दर्यसीमा जो इसकी उपासना करती है ( दासी या शिष्याके समान सेवा करती है ), अतः नयी ( वर्ण. नातीत ) शरीररचनाकी विद्याको प्राप्त किया है क्या ? [ अन्य भी कोई व्यक्ति गुरुके समीप सर्वदा रहकर वर्णनातीत श्रेष्ठ विद्याको प्राप्त करता है। पाठा०-'कामदेव' कर्ता मानकर उक्त सब पक्षों में पूर्ववत् अर्थसङ्गति करनी चाहिये ] // 12 // जम्बालजालाकिमकषि जम्बूनद्या न हारिद्रानभप्रमेयम् / अप्यङ्गयुग्मस्य न सङ्गचिह्नमुत्रीयते दन्तुरता यदत्र / / 13 / / जम्बालेति / हरिद्रया रक्तं वस्तु हारिद्रं, 'हरिद्रामहारजनाभ्यामञ् वक्तव्यः' / तेन सदृशी तन्निभा प्रभा यस्याः सा इयं दमयन्ती जम्बूनद्या मेरुपार्ववर्तिवाहिन्या जम्बालजालात्पङ्कराशेर्जाम्बूनदत्वात् / 'निषद्वरस्तु जम्बालः पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमौ' इत्यमरः / नाकर्षि न कृष्टा किम् / सुश्लिष्टाङ्गत्वात् सर्वाङ्गेषु हेमकर्दमेन प्रमृष्टा किमित्यर्थः / कुतः ? यद्यस्मात् अत्रास्यां भैम्याम् अङ्गयुग्मस्य अवयवद्वयस्य सङ्गचिह्नं सन्धानचिह्नम् / दन्तुरता औन्नत्यमपि "दन्त उन्नत उरच" नोनीयते नाभ्युन्नीयते // 13 // ____ हरिद्रामें रंगे हुए ( या सुवर्ण ) के समान कान्तिवाली यह दमयन्ती जम्बू नदी ( मेरु पर्वतके समीपस्थ नदी या जामुनके रससे उत्पन्न नदी) के पक-समूहसे अर्थात् सुवर्णसे नहीं आकृष्ट हुई है क्या ? अर्थात् अवश्य आकृष्ट हुई है। क्योंकि इस दमयन्तीमें दो अङ्गों के जोड़की उच्चता-नीचता नहीं मालूम पड़ती है / [ जैसे पङ्क-समूहसे आकृष्ट-निकाली गयी वस्तुमें पङ्क लगे रहनेसे उसकी उच्चता-नीचता नहीं मालूम पड़ती; किन्तु वह वस्तु समतल मालूम पड़ती है, उसी प्रकार दमयन्तीके दो अङ्गों के जोड़ोकी उच्चता-नीचता भी (मांसल होनेसे) नहीं मालूम पड़ती, अतः यह दमयन्ती अवश्य ही जम्बूनदीके पङ्कसे आकृष्ट हुई है तथा सुवर्णतुल्य कान्ति होनेसे भी उक्त जम्बू नदीके सुवर्णमय पङ्क-समूहसे आकृष्ट होनेकी पुष्टि होती है / यह दमयन्ती स्वर्णकान्ति तथा अतिकोमलाङ्गी है ] // 13 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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