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________________ 640 नैषधमहाकाव्यम् / शिविकावाहक दमयन्ती को ले जाते तो कदाचित् वह उनमें से किसीको वरण कर लेती, किन्तु विषमय उनके उष्ण श्वास वायुको अशकुनसूचक वायु मानकर शिविकावाहक नहीं गये यह तो उन सर्पोके रही-सही अपनी आशापर भी पानी फेर कर अपने हाथों ही अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी अर्थात् अपना हो अहित किया। प्रतिकूल वायुको अशकुन सूचक शास्त्रकारों ने माना है // 22 // हीसङ्कुचत्फणगणादुरगप्रधानात् ता राजसङ्घमनयन्त विमानवाहाः / सन्ध्यानमहलकुलात्कमला विनीयकहारमिन्दुकिरणाइव हासभासम्।। हीति / विमानवाहाः शिविकावाहिनः, तां दमयन्ती, ह्रिया लज्जया, सङ्कुचन् फणगणो यस्य तस्मात् उरगप्रधानात् उरगराजात् वासुके, विनीय अपनीय, इन्दु. किरणाः हासभासं विकासलदमी, सन्ध्यायां नमबलकुलात् सङ्कुचत्पत्रचयात् , कमलात् पनात् , विनीय अपनीय कलारं सौगन्धिकमिव, राजसङ्घ नृपसमूहम , अनयन्त प्रापयन् / डिपवादात्मनेपदं 'नीवह्योहरतेश्च' इति वचनाद् द्विकर्मकत्वम् / उपमालङ्कारः // 23 // शिविकावाहक लज्जासे सङ्कुचित होते हुए फणा-समूहवाले सर्पराज (वासुकि) से हटाकर उस ( दमयन्ती ) को उस प्रकार गज-समूहमें ले गये, जिसप्रकार चन्द्रकिरण सन्ध्याकालसे बन्द होते हुए पंखड़ियोंवाले कमलसे विकसित होती हुई दीप्तिको हटाकर कलार (रक्तकमल-रात्रि में विकसित होनेवाली सौगन्धिक ) के पास ले जाते हैं // 23 // देव्याऽभ्यधायि भव भीरु ! धृतावधाना भूमीभुज ! स्त्यजत' भीमभुवो निरीक्षाम् / आलोकितामपि पुनः पिबतां दृशैता मिच्छाऽपगच्छति न वत्सरकोटिभिर्वः // 24 // देव्येति / देव्या वाग्देव्या सरस्वत्या, अभ्यधायि अभिहितम् ; किम् ? तदाहहे भीरु ! भयशीले ! भीरुशब्दात् 'उडुतः' इत्यूप्रत्यये सम्बुद्धौ नदीह्रस्वः, धृतमवधानं यया सा भव अवहिता शृण्वित्यर्थः / हे भूमीभुजः! भूपाः! यूयञ्च भीमभुवः भैम्याः निरीक्षाम् ईक्षणं, 'गुरोश्च हलः' इति स्त्रियाम् अ-प्रत्ययः, त्यजत मा कुरुत; कुतः ? युष्मासु पश्यत्सु दमयन्ती ह्रीपारवश्यात् युष्मान् प्रति दर्शनं न दास्यति, अतो नैनां विलोकयत इति भावः; आलोकिताम् ईक्षितां, दृष्टामपीत्यर्थः एतां पुनः ईशा पिबताम् आस्थया पश्यतां, वो युष्माकं, वत्सरकोटिभिः अनन्ताब्देरपि इच्छा दर्शनेच्छा, न अपगच्छति, अतो मद्वाक्यमवहिताः शृणुतेत्यर्थः // 24 // देवी ( सरस्वती देवी) ने ( क्रमशः दमयन्ती तथा राजाओंको सावधान करते हुए.) कहा-हे भीरु ! ( वासुकिके देखनेसे या भय के स्त्रीसहज होनेसे डरने वाली दमयन्ती ) 1. 'भजत' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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