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________________ प्रथमः सर्गः। जो (तड़ाग) तोरपर ठहरे हुए घोड़ोंकी ( नील-श्वेत-कृष्ण आदि विविध ) कान्तिके प्रतिविम्बके सम्बन्धसे चाल तरङ्गरूपी कोड़ोंके प्रहारोंसे मानो इशारों उच्चैःनाको धारण करता था। [घोड़े कोडेको प्रहारसे चषक होकर चलते हैं, जलमें प्रतिविम्बित वस्तुके तरसे चाल होनेके कारण तीरपर ठहरे हुए नलके घोड़ों के प्रतिबिम्ब जलके तरङ्गरूपी कोड़ोंकी मारसे चलते हुए भनेक उच्चै श्रवा घोड़ोंके समान प्रतीत होते थे। यहाँ मी समुद्र में एक उच्चैःप्रवासे तथा इस तडागमें अनेक उच्चैःश्रवाके होनेसे समुद्रको अपेक्षा इस तडागकी श्रेष्ठता सूचित होती है तथा नलके घोड़ोंका उच्चैःश्रवाके समान होना सूचित होता है ] // 109 // सिताम्बुजानां निवहस्य यश्छलाद् बभावलिश्यामलितोदरश्रियाम् / तमासमच्छायफलसङ्कलं कुलं सुधांशोबहलं वहन् बहु / / 10 // सितेति / यस्तडागः भलिभिः श्यामलितोदरश्रियां श्यामीकृतमध्यशोभानां सिताम्बुजानां पुण्डरीकाणां निवहस्य उछलात् तमःसमच्छायः तिमिरवर्णः यः कलाः तेन सङ्कुलं बहलं सम्पूर्णम्पहनेकं सुधांशोश्चन्द्रस्य कुलं वंशं वहन् सन् बभौ / भत्र छलशब्देन पुण्डरीकेषु विषयापहवेन चन्द्रस्वाभेदादपहवभेदः, व्यतिरेकस्तु पूर्ववत् // 110 // __ जो (तहाग ) बीचमें भ्रमरों के बैठनेसे श्यामवर्ण मध्यभागवाले श्वेतकमलों के समूहके कपटसे अन्धकारके समान (कृष्णवर्ण) कलङ्कसे युक्त चन्द्रमाके बहुतसे समूहोंको धारण करता हुआ शोमता था- / [ यहाँ भी एक चन्द्रमावाले समुद्र की अपेक्षा अनेक चन्द्रकुलके धारण करनेवाले इस तडागको श्रेष्ठता सूचित होती है ] // 110 // रथाङ्गभाजा कमलानुषङ्गिणा शिलीमुखस्तोमसखेन शार्जिणा। सरोजिनीस्तम्बकदम्बकंतवान्मृणालशेषाहि वाऽन्वयायि यः / / 111 // स्थाङ्गेति / यस्तटागो रथाङ्गं चक्रवाकः धक्रायुधज्ञ यधपि चक्रवाके रथाङ्गना. मेति च प्रयोगो रूढः तथापि प्रायेणास्य धक्रशब्दपर्यायस्वप्रयोगदर्शनात् (रथात) पदस्याप्युभयत्र प्रयोगम्मन्यते कविः, तद्भाजा 'भजो ण्विः', कमले कमलया चान. षङ्गिणा संसर्गवता शिलीमुखस्तोमसखेन अलि कुलसहचरेण अन्यत्र सखिशब्दः माहश्यवचनः तरसवर्णनेत्यर्थः, मृणालं शेषाहिरिवेत्युपमितसमासः, तद्भुवा तदाकरेण अन्यत्र मृणालमिव शेषाहिः तनवा तदाधारण शाङ्गिणा विष्णुना सरोजिनी. नों स्तम्बा गुल्माः, 'अप्रकाण्डे स्तम्बगुल्ममित्यमरः, तेषां कदम्बस्य केतवान्मिषात् अन्वयायि अनुयातोऽनुसृतोऽधिष्ठित इति यावत् / अत्रापि कैतवशब्देन स्तम्बरव. मपत्य शारिवारोपादपहवभेदः / / 111 / / / जो ( तडाग ) चकवा-चकईयुक्त, कमलसहित, भ्रमर-समूहवाले तथा मृणालरूप जो शेष शरीर तद्रूप भूमिपर सस्पन्न कमलिनी स्तम्म-समाके कपटसे मुर्शनचक युक लक्ष्मी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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