________________ चतुर्थः सर्गः 245 स्यर्थः / 'उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा' इत्ययः। तव तु हीनतया नीचतया पृथक प्रत्येकमेकि कामेकाकिनीमेकैकां सुमनोव्यक्तिमुपहरन्तीत्यर्थः / अत एव प. बाणवं तवेति भावः / 'एकादाकिनिहासहाये' इति चकारात् कनप्रत्यये पूर्व स्येकारः / इयता एतावदवमानेनापि ते तवानविदारणं शरीरविपत्ति स्तिाधिक। अवमतस्य जीवनान्मरणमेव वरमिति भावः // 9 // ___(मन्दार आदि स्वर्गीय ) पांच देववृक्ष किस देवताको किसने पुष्प उपहार ( भेंट) नहीं देते 1 अर्थात् सब देवताओं को असंख्य पुष्प वे भेंट करते हैं, किन्तु हीनता ( अनमः भाव, पक्षा०-नीच ) होने के कारण वे तुमको पृथक् पृथक् केवल एक-एक ही पुष्प उपहार देते हैं / इतने (बड़े अपमान ) से भी तुम्हारा अङ्ग ( हृदय या शरीर / विदीर्ण नहीं हो जाता, ( अथवा-मन पर्थात् जो मगरहित है, उसका मा विदीर्ण कहाँसे होगा ? अतः 'भग' शब्दको सम्बोधन मानकर 'हे अङ्ग ! हृदयस्थ होनेसे निकटतम मित्र !) तुम्हारा विदारण अर्थात विध्वंस या विदारण चूर-चूर होना नहीं हो जाता ! ऐसे निलज्ज तुमको धिक्कार है / 'अङ्गविधारणम्' पाठमें-शरीरधारण करना तुम्हें धिकार नहीं है 1 अर्थात अवश्य धिकार है ) // 90 // कुसुममप्यतिदुर्नयकारि ते किमु वितीर्य धनुर्विधिरग्रहीत् / किमकुनैष यदेकतदास्पदे द्वयमभूदधुनापि नलभ्रवोः // 11 // कुसुममिति / विधिः कुसुममपि दुर्बलमपीत्यर्थः / अतिदुर्नयकारि अनर्थकारक धनुस्ते तव वितीयं दावा, अग्रहीत् किमु पुनर्जहार किमित्युस्प्रेगा। पापीयसे दत्तं हन्तव्यमेवेति भावः / किरवेष विधिः, किमकृत अकार्यमेव कृतवानित्यर्थः। कुतः, यद्यस्मादेकस्य तस्य धनुष भास्पदे स्थाने, अधुना नलभ्रुवोर्द्धयमभूदि / तेनैव धनुषा नलभ्रवो दे निर्मितवता तेन कण्टकमुश्य शल्पमारोपितं यदेकासहिष्णोद्धयमः सह्यं सम्पादितमिति भावः // 91 // ब्रह्माने पुष्पमय होनेपर मी अत्यन्त दुर्नीति (अवगादिपीडन भादि) करनेवाले तुम्हारे धनुष को देकर ( फिर वापस ) ले लिया क्या ?, ( किन्तु ) इस ( ब्रह्मा ) ने तुम्हारा क्या (अपकार, अथवा-हम विरहिणियोंका उपकार ) किया ? अर्थात् कुछ नहीं; क्योंकि इस समय तुम्हारे उस एक धनुषके स्थानपर नलका भ्रूरूप दो धनुष हो गये। [ परोपकारकी भावनासे किया हुमा ब्रह्माका कार्य संसारके माग्यसे प्रतिकूल हो गया, हा खेद !] // 91 // षड़तवः कृपया स्वकमेककं कुसुममक्रमनन्दितनन्दनाः। . ददति षड् भवते कुरुते भवान् धनुरिवैकमिषूनिव पञ्च तैः // 12 // पडिति / अक्रमेण योगपद्येन, नन्दिततन्दनाः प्रकाशितसुरोधानाः, युगपशिज. कुसुमदानसमर्था इत्यर्थः / षडतचो वसन्तादयः, कृपया, न तु प्रीत्येति धावः। स्वक स्वसम्बन्धिनम(न्धिोएककमेकैकमेव असहाये कन्प्रत्ययः। कुसुम ददाना इति शेषः /