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________________ 206 नैषधमहाकाव्यम्। रूपसे प्रवेश करनेका कपटाचरण लोगों को मालूम पड़ा। अथवा परमसुगन्धित मलयवायु कामदेवका मित्र है, अतः सर्वदा विरहियों के काम को वह उत्तेजित करता (बढ़ाता ) है, दमयन्तीका सुगन्धित निःश्वास मलयवायुके समान कल्पित किया गया है। दूसरा मी कोई जेल या हवालात भादिमें बन्द मित्रको छुड़ाने के लिये अवसर पाकर चुपचाप उसके पास पहुँचकर उसे छुड़ानेकी चेष्टा करता है और ना बाहर निकलते हुए उसे कोई देख लेता है तो उसके गुप्तरूपसे मीतर प्रवेश करने के मायाचारको जान जाता है / दमयन्तीके निःश्वास के साथ ही उसका कामसन्ताप भी बढ़ गया ] // 14 // विरहपाण्डिमरागतमोमषीशितिमतन्निजपीतिमवर्णकैः / दश दिशः खलु तदृगकल्पयल्लिपिकरी नलरूपकचित्रिताः / / 15 / / विरहेति / तस्या दमयन्स्याः , राष्टिरेव, लिपिकरी चित्रकरी, विरहेण पाण्डिमा शरीरश्वैत्यं, रागोऽनुरागः, स एव रागो रकिमा। श्लिष्टरूपकम् / तमो मोहस्तदेव मषी तस्याः शितिमा नीलिमा / तस्या भैम्याः,निजो नैसर्गिकः पीतिमा कनकवर्णः, चतुर्णा इन्दः, तैरेव वर्णकः चित्रसाधनः, दश दिशस्ता एव मित्तीरिति शेषः / नलस्य रूपक प्रतिकृतिभिः चित्रिताः सातचित्राः, तारकादिवादितच / अकल्प. यदपजत्खलु / निरन्तरचिन्ताजनितया भ्रामस्या प्रतिदिशं मिथ्यानलानद्राक्षी. दित्यर्थः // 15 // - दमयन्तीकी दृष्टिरूपिणी चित्रकारिणी ( चितेरी-चित्र बनानेवाली ) ने ( उसके शरीर में ) विरहसे उत्पन्न पाण्डुरता, राग ( लाल रज, पक्षान्तरमें-अनुराग ), मूच्र्छारूपी स्याही की कालिमा (काला रक) और सर्वप्रसिस ( स्व-देह-सौन्दर्यरूप ) पीलापन (पीला रङ्ग); इन रजसे दशो दिशाओंको (सब ओर ) नळके चित्रोंसे चित्रित कर दिया। दूसरी कोई चितेरी भी श्वेत, लाल, काले और पीले रगोंसे सब भोर चित्र बना देती है // नलविषयक अनुरागके कारण विरहसे दमयन्तीके शरीर में पाण्डुता, मूच्र्छा म दि विकार होने लगे और उसे सब बोर नल ही दिखलाई पड़ने लगे] // 15 // स्मरकृति हृदयस्य मुहुदेशां बहु वदन्निव निःस्वसितानिलः / व्यधित वाससि कम्पमदः श्रिते त्रसति कः सति नायबाधने // 16 // स्मरकृतिमिति / निःषसितानिलः, स्मरकृति मदनकर्तृकसृष्टिरूपा, हृदयस्य हस्पि. ण्डस्य, दशामवस्था, बहु बहुवारं (क्रियाविशेषणम् ), वदग्निव एवं कम्पत इति कथयनिवेत्युस्प्रेक्षा / अदो हृदयं, श्रिते वाससि, कम्पनळनं, तरकारणं त्रासन, मुहः ज्यधित विहितवान् / दधातेलहिता। 'स्थाध्वोरिच' इतीकारः / 'हस्वादनात्' इति सिचो लोपः। तथा हि-आश्रयबाधने सति, को नाम न सति / सर्वोऽपि सत्येवे. त्ययः। तद्वाधे तदाश्रितस्य स्वस्थापि बाधादिति भावः। भर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः॥ ( दमयन्तीकी ) निःश्वासवायु उसके हृदयकी कामजन्य दशा ( पीडा, अवस्था ) को बार-बार अधिक कहती हुईके समान (दमयन्तीके) हृदयपर स्थित वस्त्रको कम्पायमान करने
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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