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________________ चतुर्थः सर्गः 205 धंसी ) हुई दमयन्तीकी आँखोंको सामने पड़ी हुई वस्तुओंको भी देखनेका सामथ्र्य नहीं रहा। [चिन्ताके कारण दमयन्तीकी आँखें भीतर धंस गई थीं तथा वे सामने मी पड़ी हुई वस्तुओं को नहीं देख सकती थीं ] // 12 // हृदि दमस्वसुरश्रुझरप्लुते प्रतिफलद्विरहात्तमुखानतेः / हृदयभाजमराजत चुम्बितु नलमुपेत्य किलागमितं मुखम् // 13 // हृदीति / विरहेणात्ता प्राप्ता मुखानतिर्यया सा तस्या नम्रमुखायाः दमस्वसुः मुखम् / अश्रुझरेणाप्रवाहेण, प्लुते सिक्ते, हृदि हृदये, प्रतिफलत् प्रतिबिम्बितं सत् , हृश्यमा हृदि स्थितं, नलं चुम्बितुमुपेत्य गत्वा, आगमितं सातागमनं किल, प्रत्यागतमित्युत्प्रेक्षा / तारकादित्वादित च / किलेति सम्भावनायाम् / वातासम्माययोः किल' इत्यमरः / अराजत रराज / सम्भावनायामुत्प्रेक्षा // 13 // ( नल-) विरहसे नीचेकी ओर मुख की हुई दमयन्तीकी आँसुओं के प्रवाह (अश्रुधारा) से मांगे हुए हृदयमें ( छातीपर पड़ी हुई आँसुओंकी बूंदों में ) प्रतिबिम्बित उस दमयन्तीका मुख, मानो हृदयस्थित नमको चुम्बन करने के लिये पास गये हुएके समान शोभायमान होता था। [चिन्तासे नोचेकी ओर मुख किये दमयन्ती रो रही थी, अश्रु प्रवाह-जन्य बूंदें छाती पर पड़ी हुई थीं, उनमें उसका मुख प्रतिविम्बित हो रहा था, उसे देखनेसे मालूम होता था कि हृदय में रहनेवाले प्रियतम नलके पास जाकर दमयन्तीका मुख चुम्बन कर रहा है ] // 13 // सुहृदमग्निमुदञ्चयितुं स्मरं मनसि गन्धवहेन मृगीदृशः। अकलि निःश्वसितेन विनिर्गमानुमितनिह्नत वेशनमायिता / / 14 // सुहृदमिति / गन्धवहन बाह्यवायुना, सुहृदं मखायम् / 'रोहिताश्वो वायुसखः' इस्यग्नेर्वायुसखस्लाभिधानात् / मृगीदृशः भैम्याः, मनसि, स्मरमेवाग्निमुदचयितु. मुद्दीपयितुं, निःश्वसितेन निःश्वासवातम्याजेन, विनिर्गमेण बहिनिस्सारणेन, अनु. मितं निहतं, प्रागज्ञातं, यद्वेशनमन्तःप्रवेशस्तन मायिता मायाविस्वम् / तस्कल्प. नापाटवं नीहादिस्वादिनिः / अकलि कलितं प्राप्तम, नूनमिति शेषः / अनिदो हि गूढं प्रविश्य प्रकाशं निर्गच्छति, तद्वदायुरपि याङनिःश्वासध्याजेन तथा कृत्वा निर्गत इत्युत्प्रेक्षा // 14 // ___मृगनयनी दमयन्तीके निःश्वासरूपी मलय-वायुने दमयन्ती के हृदयमें रहनेवाले ( या कैद ) मित्रभूत कामाग्निको उत्तेजित करने ( या बाहर निकालने ) के लिये बाहर निकलने पर अनुमान किये गये गुप्तरूपमे मीतर प्रवेशरूप मायाको धारण किया। [ 'अग्निका वायु मित्र है' यह सर्वविदित है, अतः मित्र होने के कारण दमयन्तोके हृदयरूप जेल में कैद कामा. ग्निको छुड़ाने के लिये या उसको उत्तेजित करने के लिये दमयन्तीका सुगन्धित निःश्वासरूप वायु चुपचाप उसके हृदयमें भीतर प्रवेशकर जब बाहर निकलने लगा तब उसका गुप्त 1. 'किलागमि तन्मुखम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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