________________ तृतीयः सर्गः। 173 भूत्वा अत एव नलदरवं नैषधदातृत्वम् / अन्यत्र उशीरत्वं चेत्यर्थः / हृदः चंदनलेप. कृत्यं शैत्योत्पादनं न कर्ता करिष्यत्येव परोपकारशीलत्वादिति भावः / 'काण्डोऽस्त्री दण्डबाणार्ववर्गावसरवारिषु / ', 'स्याद्वीरणं वीरतरुर्मूलस्योशीरमस्त्रियाम् / ' 'अभयं नलदं सेव्यमिति चामरः / वीरणस्येति शब्दश्लेषः / अन्यत्रार्थश्लेषः / तथा च नलदत्वमेत्य चेति प्रकृताप्रकृतयोरभेदाध्यवसायेन हंसे आरोप्यमाणस्योशीरस्य प्रकृत्या तादात्म्येन चन्दनकृत्यलक्षणप्रकृतकार्योपयोगात् परिणामालङ्कारः / 'आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम' इति लक्षणात्, स चोक्तश्लेषप्रतिविम्बो. स्थापित इति सङ्करः // 9 // __ असमय अर्थात् बाल्यमें ही कामदेवसे उत्पादित रहस्य-कथनका मूल पक्षी होकर भी ( अथवा-नलका प्रस्ताव उपस्थित कर बाणहीन कामदेवके युद्धका मूल ( जड़ ) पक्षी होकर भी / अथवा-विना गांठ (पर्व-पोर ) के ही ब्रह्माके द्वारा मेरे लिए रचे गये खसका मूल-जड़ होकर भी आप मेरे लिए नल ( राजा नल, पक्षा०-उशीर = खश ) को देकर हृदयके चन्दन लेपके कार्यको नहीं करेंगे क्या ? ( जब आप मेरे लिए ब्रह्मसृष्ट खशकी जड़ बने हैं, तब आपकी मेरे लिए नल (खश) को देकर हृदयपर चन्दनलेपके कार्य को पूरा कराना ही चाहिये / अथ च-मेरे कौमार अवस्थामें ही आप सहसा कहींसे आकर कामयुद्ध का मूल बन गये हैं तो नलको मेरे लिए देकर मेरे हृदय पर चन्दन लेपका कार्य सम्पादन आपको करता ही चाहिये, अन्यथा यदि अन्य-नलको मेरे लिए नहीं देंगे तो मैं हृदय पर चन्दनका लेपकर शृंगार भी नहीं करूँगी ] // 90 // अलं विलम्ब्य स्वारतु हि वेला कार्य किल स्थैर्यसहे विचारः / गुरूपदेशं प्रतिभेव तीक्ष्णा प्रतीक्षते जातु न कालमातिः // 11 // अलमिति / हे हंस ! विलम्ब्यालं न विलम्बितव्यमित्यर्थः। 'अलकत्वोरित्यादिना क्त्वाप्रत्यये ल्यबादेशः। त्वरितुं वेला हि त्वराकालः खस्वयमित्यर्थः / 'कालसमयवेलासु तुमुन्' कुतः ? स्थैर्यसहे विलम्बसहे कार्य विचारो विमर्शः किलेति प्रसिद्धी, अन्यथा विपत्स्यत इति भावः तथाहि तीपणा शीघ्रग्राहिणी प्रतिभा प्रज्ञा गुरूपदेशमिव आर्निराधिर्जातु कदापि कालं न प्रतीक्षते, कालोपं न सहत इत्यर्थः / उपमार्थान्तरन्यासयोः संसृष्टि // 91 // यह समय शीघ्रता करनेका है, अत एव विलम्ब मत करो, क्योंकि विलम्बको सह सकनेवाले कार्य में विचार किया जाता है। जिस प्रकार तीक्ष्ण बुद्धि गुरुके उपदेशकी प्रतीक्षा कभी नहीं करती, उसी प्रकार पीड़ा ( नल-विरह पीडा) समय ( विलम्ब) की प्रतीक्षा नहीं करती // 91 // अभ्यर्थनीयस्स गतेन राजा त्वया न शुद्धान्तगतो मदर्थम् / प्रियास्यदाक्षिण्यबलात्कृतो हि तदोदयेदन्यवधूनिषेषः / / 92 / /