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________________ नवमः सर्गः। 521 देवतानां स्वापेन चासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिद्वयम्, तथा तद्विरामरण्यरुदितासम्मवेन सारश्याक्षेपानिदर्शनाभेदः तेन सङ्कीर्णः // 96 // ___ अथवा रात-दिन मेरे ही अनुरूपी दुर्दिनों (मेघाच्छन्न दिनों) से वर्षा ऋतुके होनेसे सोकर देवलोग मेरी प्रार्थनाको कैसे मुनें ?, ( अतएव ) मेरे वचनका अरण्यरोदन ( जंगलमें रोना) कैसे नहीं हो ? अर्थात् अरण्यरोदन होवे ही / / वर्षा ऋतुमें देवताओंका सोना पुराणादि वचनोंसे प्रतीत है, उस वर्षा ऋतुको रात-दिन रोनेसे आंसुओंके द्वारा दुर्दिन बनाकर मैंने ही उत्पन्न किया है, अतएव मेरे द्वारा ही उत्पादित वर्षा ऋतुमें वे देवता सो रहे हैं और सोया हुआ कोई भी व्यक्ति किसी की बात नहीं सुनता, यही कारण है कि सोये हुए वे देवता लोग मेरी प्रार्थनाको नहीं सुन रहे हैं और वह अरण्य-रोदन (सून-सान स्थानमें विलाप ) हो रहा है, अतएव इसमें मेरा ही अपराध है, देवता लोगोंको कृपाकी कमी मेरे ऊपर नहीं है ] 96 // इयं न ते नैषध ! एक्पथातिथिस्त्वदेकतानस्य जनस्य यातना / हदे हदे हा न कियद्गवेषितः स वेधसागोपि खगोऽपि वक्ति यः // 10 // इयमिति / हे नैषध ! इयं त्वदेकतानस्य स्वस्परस्य 'एकतानोऽनन्यवृत्तिः' इत्य. मरः / जनस्य स्वस्यैवेत्यर्थः / यातना तीव्र वेदना ते तव दृक्पथातिथिन हग्गोचरो न, देशविप्रकर्षादिति भावः / किञ्च यः खगो हंसो वक्ति नलाय मयातनां निवेदयेत् स खगोऽपि वेधसा अगोपि कापि गुप्तः / कुतः, हृदे हृदे सर्वेषु जलाशयेष्वित्यर्थः / वीप्सायां द्विरुक्तिः / किया गवेषितो नान्विष्टः / हा बतेत्यर्थः // 97 // हे नल ! तुम्हारेमें परायण अर्थात् तुम्हारे अधीन जीवनवाले मनुष्य की अर्थात् मेरो यह यातना ( कठिनतम पीडा ) तुम्हारे दृष्टिगोचर नहीं है / अर्थात् तुम्हें दूर देश में रहनेसे तुम इस यातना को नहीं देख रहे हो ( अथवा-..... दृष्टिगोचर नहीं है ? अर्थात् मेरे अन्तःकरणमें होनेसे तुम स्वाश्रित मेरी तीव्र यातनाको अवश्य देख रहे हो, परन्तु यह अर्थ-कल्पना पथके उत्तरार्द्धसे होनेसे हेय है ) हाय ! खेद है कि जो पक्षी ( राजहंस ) भी ( मेरी इस यातनाको तुमसे जाकर ) कहता, उसे ब्रह्माने छिपा लिया है; ( क्योंकि ) प्रत्येक तडागों में मैंने उसे कितना नहीं खोजा ? [अर्थात् प्रत्येक तडागोंमें खोजनेपर भी वह हंस नहीं मिला, अतः मालूम पड़ता है कि उसे उसके स्वामी ब्रह्माने छिपा लिया है और स्वाभिमक्त वह हंस भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता, अन्यथा यदि वह मिल जाता तो अवश्य मेरी इस यातनाको तुम्हें सुनाता और तुम आकर शीघ्र मुझे इस पीडासे नुक्त करते, परन्तु ब्रह्माको यह इष्ट नहीं हैं, उसी कारण उसने उस हंसका कहीं छिपा लिया है ] / / 97 / / ममापि कि ना दयसे दयाधन ! त्वदनिमग्नं यदि वेत्थ मे मनः / निमज्जयन् सन्तमसे पराशयं विधिस्तु वाच्यः क तवागसः कथा / / 18 /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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