________________ प्रथमः सर्गः। शिलीमुखाली भलिपंकीः वामपंक्तीमावलोक्य स्मरः स्वचापात् पौष्पाद शु वर्गमा विषमनिर्गता ये मार्गणा वाणास्तद्भमादेतोजितोऽभवत् न्यूनमिति शेषः / दुर्मिगतेषवो अधिक स्वनन्तीति प्रसिद्धः / अत्र स्वनच्छिलीमुखेषु दुर्निर्गतमार्ग बन्नाद भ्रान्तिमदलङ्कारः स च शिलीमुखेति श्लेषानुप्राणितादुस्थापिता घेयं श्य कजितस्वोस्प्रेत्यनयोरनाङ्गिभावेन सः // 93 // पुष्पों की अपेक्षा सुगन्धित नल-शरीरको उद्देश्य ( लक्ष्य ) कर चली हुई, गुणदणी (सुगन्धिगुणको चाहनेवाली, पक्षा०-प्रत्यनाका स्पर्श की हुई), शम्द करती (पक्षागूंजती ) हुई भ्रमर-पछिक्त देखकर अपने धनुषसे दुःखपूर्वक अर्थात् भ्रष्ट होकर निकले हुए माणके भ्रमसे कामदेव लज्जित-सा हो गया। [ नसके शरीरको सुगन्धि पुष्पोंसे बाधिक यो, अतएव पुष्पों को छोड़ छोड़ कर भ्रमरसमूह नल-शरीरपर गूंजते हुए आ रहे , हमें देखकर कामदेव 'ये मेरे पाण ( पुष्परूप चापकी प्रत्यञ्चासे निकलकर लक्ष्य अष्ट हो' करते हुए जा रहे है ऐसा भ्रम होनेसे मानो लज्जित हो गया। लक्ष्यभ्रष्ट होकार बाणको देख धनुर्धर को लज्जित होना उचित है ] // 93 / / मरबलत्पल्लवकण्टकैः क्षतं समुच्चरश्चन्दनसारसौरभम् / स वारनारीकुचसश्चितोपमं ददर्श मालरफलं पचेलिमम् / / 14!! महदिति / मरुता वायुना ललरपल्लवानामलस्किसलयानां कण्टकैती यवैः चतमन्यत्र विलसदिटनखैः पतमिति गम्यते, समुच्चरत् परितः प्रस्टप 5. नसारस्येव सौरभं यस्य तव अतएव वारनारीकुचेन वेश्यास्तनेन सशिता सम्पादितसाहश्यमित्युपमालङ्कारः। 'वारस्त्री गणिका वेश्येत्यमरः। कुलानाखाताधनौचित्याद्वारविशेषणं, पचेलिमं स्वतः पक्कं कर्मकर्तरि केलिमर उपसंया. नमिति पचेः केलिमर प्रत्ययः / मालूरफलं बिल्वफलं 'बिल्वे शाण्डिल्योलापौ मालूरः श्रीफलावपी'त्यमरः / स नलो ददर्श / / 94 // उस ( नल ) ने वायु से कम्पित शाखाग्रके कण्टकों से ( पक्षा०-वायुके समान विकास करते हुए विट ( धूत नायक ) के कण्टकतुल्य नखोसे ) क्षत, निकलते हुए चन्दन के समान श्रेषु सुगन्धवाले ( पक्षा-निकलते हुए चन्दनके श्रेष्ठ गन्धवाले ) वेश्याके स्तनोंकी प्तमानताको पाये हुए पके बेळके फल को देखा // 9 // युवद्वयीचित्तनिमजनोचित प्रसूनशून्येतरगर्भगह्वरम् / स्मरेषुधीकृत्य धिया भियाऽन्धया स पाटलायाः स्तबकं प्रकम्पितः / / 6 / / युवेति / युवा च युवती च तयोयूनोईयो मिथुनं तस्याश्चित्तयोः कर्मणोनिमलने ग्यन्ताल्लुट् उचितैः पमैः प्रसूनैः पुष्पबाणैः शून्येतरदशून्यं पूर्ण गर्भगहरं गर्भ कुहरं यस्य तत् पाटलायाः पाटळवृषस्य स्तबकं कुसुमगुरुम्मियान्धया भयमू. ढया धिया भयजन्यभ्रान्स्येत्यर्थः। स्मरेषुधीकृश्य कामतूणीकस्य तथा विभग्य