SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयः सर्गः तरुमूरुयुगेन सुन्दरी किमु रम्भा परिणाहिना परम् / तरुणीमपि जिष्णुरेव तां धनदापत्यतपःफलस्तनीम् // 37 / / - तरुमिति / सुन्दरी दमस्वसा परिणाहिना विपुलेन ऊरुयुगेन रम्भा रम्भां नाम तरं परन्तरुमेव 'न लोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / जिष्णुः किमु ? किन्तु धनदापत्यस्य नलकूबरस्य तपसः फलस्तनी फलभूतकुचां तां रम्भान्नाम तरुणीमपि जिष्णुरेव / 'रम्भाकदल्यप्सरसोरिति विश्वः। रम्भे इव रम्भाया इव चोरू यस्याः सा इत्युभयथा रम्भोरुरित्यर्थः // 37 // सुन्दरी दमयन्ती विशाल ऊरुद्वयसे केवल रम्भा ( केला ) दृक्षको ही जीतनेवाली है क्या ? ( ऐसा नहीं कहना चाहिये, किन्तु ) कुबेरपुत्र ( नलकूबर ) की तपस्याके फलस्वरूप स्तनोंवाली युवती रम्भा ( नामकी अप्सरा ) को भी जीतनेवाली है ! [ दमयन्ती उक्तरूप ऊरुद्वयसे केवल कदली-स्तम्भको नहीं, किन्तु जिस रम्भाके स्तनोंको नलकूबरने तपस्याके फलस्वरूप प्राप्त किया है, उस तरुणी रम्भाको भी जीतती है अर्थात्-दमयन्तीके ऊरुद्वय कदली-स्तम्भ तथा रम्भा अप्सराके ऊरुद्वयसे भी अधिक चिकने, गोलाकार एवं क्रमिक आरोहावरोह (चढ़ाव-उतार ) वाले हैं ] // 37 / / जलजे रविसेवयेव ये पदमेतत्पदतामवापतुः / ध्रवमेत्य रुतः महंसकोकुरुतस्ते विधिपत्रदम्पती॥ 38 / / जलजे इति / ये जलजे द्विपझे रविसेवया सूर्योपासनयेब एतस्याः पदतां चरणत्वमेव पदम्प्रतिष्ठामवापतुः ते जलजे कर्मभूते विधिपत्रदम्पती द्वन्द्वचारिणौ ब्रह्मवाहनहंसौ एत्यागत्य रुतः रवात्कूजनादित्यर्थः। रौतेः सम्पदादित्वात् क्विपि तुगागमः / सहंसकी सपादकटकी सहंसकी च कुरुतः 'अभूततद्भावे विः' / हंसकः पादकटक' इत्यमरः / हंसपक्षे वैभाषिकः कप्रत्ययः / ध्रुवमित्युत्प्रेक्षायाम् / पद्महंसयोरविनाभावात् कयोश्चिद्दिव्यपद्मयोस्तत्पदत्वमुत्प्रेक्ष्य दिव्यहंसयोरेव हंसकत्वञ्चोत्प्रेक्षते // 38 // जिस कमलद्वयने मानो सूर्यकी सेवामें दमयन्तीके चरणरूप उत्तम स्थानको प्राप्त किया है ( अत एव ) मानो ब्रह्माका वाहनभूत हंसमिथुन उस (कमलद्वय ) के पास आकर उसे हंसयुक्त कर रहा है / [ दमयन्तीके चरण कमलके समान हैं, अत एव ज्ञात होता है कि कमलने सूर्यकी सेवासे दमयन्तीके चरणरूप उत्तम स्थानको पाया है, क्योंकि लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी देवताकी सेवासे उत्तम पदको पाता है; तथा कमलको हंस-सहित होना उचित होनेसे ब्रह्माका वाहनभूत हंसमिथुन (हंस तथा हंसी ) उन कमलोंके पास आकर उन्हें हंस-युक्त कर रहा है, पक्षा०-दमयन्तीके चरण कमल हंसके समान मधुर शब्द करनेवाले नूपुरोंसे युक्त हैं ] // 38 // श्रितपुण्यसरःसरित्कथं न समाधिक्षपिताखिलक्षपम् / जलज गतिमेतु मजुलां दमयन्तीपदनाम्नि जन्मनि // 36 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy