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________________ नैषधमहाकाव्यम् / उस वचनको सुना तथा देवविषयक स्मृहासे परिपूर्ण होनेसे निःसार उस बातको नहीं सुना। हाथपर कपोल तथा कानके रखनेसे पतिव्रता दमयन्तीने एक कान बन्द कर लिया था, अतः एक कानके द्वारा सुना गया वचनका आधा सुना जाना उचित ही है। हाथपर कपोल रखनेसे दमयन्तीका उक्तबातको सुनते हुए चिन्तित होना सूचित होता है ] / / 60 // चिरादनध्यायमवामुखी मुखे ततः स्म सा वासयते दमस्वसः / कृतायतश्चाविमोक्षणाथ तं क्षणाद्वभाषे करुणं विचक्षणा / / 61 / / चिरादिति / ततो नलवाक्यानन्तरं सा दमस्वसा दमयन्ती अवामुखी चिन्ता. भरात् नम्रमुखी सती मुखे वाचि चिराचिरमनध्यायं मौनम्, "अध्यायन्याये" त्यादिना धमन्तो निपातः। “गातेबुद्धि" इत्यादिन अणिकतु: कर्मत्वम् / वासयते स्म वासितवती, लटि "लट् स्मे" इति भूते लट् / “न पादम्" इत्यादिना वसेlन्तात्तस्य परस्मैपदप्रतिषेधात् “णिचश्चे" त्यात्मनेपदम् / किन्तु विचष्ट इति विचक्षणा वस्त्री सा“अनुदात्तेतच हलादे" रिति युप्रत्यये टाप / 'असनयोश्वप्रतिषेधो वक्तव्यः" इति ख्यामादशाभावः / कृतमायतवासस्य विमोक्षणं विमोचनं यया सा सती दीर्घ निश्वस्येत्यर्थः / मोक्षयतेश्चीरादिकात् ल्युट / तं नलं क्षणात् क्षणं विलम्ब्येत्यर्थः। करुणं दीनं यथा तथा बभाषे एते मौनश्वासावाङमुखत्वादयश्चिन्तानुभावा ज्ञयाः। "ध्यानं चिन्ता हितानाप्तेः शून्यताश्वासतापकृ" दिति लक्षणात् // 6 // उसके बाद नीचे मुखकी हुई दमयन्तीने चिरकाल तक मुख में अनध्याय को बसाया अर्थात् कुछ समय तक चुप रही। इस ( चुप रहने ) के बाद लम्बी सांसको छोड़ती हुइ चतुर दमयन्ती क्षम (मुहूर्त ) भरमें करुण ( करुणायुक्त, अथवा-करुण पूर्वक-अथवा( 'अकरुण' पदच्छेद करके ) अकरुण अर्थात् निष्ठुर, वचन बोली--मौन धारण करनेसे अधोमुखी होना तथा दीर्घ श्वास छोड़नेसे दूत-वचन सुननेसे दमयन्तीका चिन्तित होना सूचित होता है / दीर्घश्वास छोड़नसे आँधी का आना और उसमें क्षणमात्र अनध्याय रखनेके बाद ही अध्ययनका आरम्भ करना धर्मशालके अनुसार उचित होनेसे दमयन्तीका वैसा ही करना उसके 'विचक्षण' विशेषणको आचिस्य-प्रतीति कराता है ] / / 61 / / विभिन्दता दुष्कृतिनी मम श्रुति दिगिन्द्रदुर्वाचिकसूषिसञ्चयैः / प्रयातजीवामिव मां प्रति स्फुट कृतं त्वयाप्यन्तकदूततोचितम् / / 62 // विभिन्दतेति / दुष्कृतिनी पापिष्ठां पापोक्तिग्राहित्वादिति भावः / मम श्रुति श्रोत्रं दिगिन्द्राणामिन्द्रदीनां दुर्वाचिकानि दुष्टसन्देशा एव सूचयस्तासां सञ्चयैः समूहैर्विभिन्दता विदारयता परपुरुषप्रसङ्गत्वादिति भावः। त्वयापि प्रयातो जीवो जीवितं यस्थास्तां प्रेतामिव मां प्रति स्फुटं व्यक्तं यथा तथा अन्तकदूतताया यमदूतत्वस्योचितं (कम)कृतम् / पतिव्रतानां परपुरुषवार्तापि यमयातनाया नातिरिच्यत इति भावः॥ तुमनं भी अथात् नलके समा शुन्दर एव सजन लो तुमने नहीं सुनने योग्य (इन्द्रादि
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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