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________________ नवमः सर्गः। 503 पर पुरुषों के सन्देशको सुननसे ) पापी मेरे कानोंको दिक्पालोंके दुष्ट सन्देशरूपी सूर्योके समूहोंसे छेदते हुए ( अत एव ) मरी हुई के समान मेरे प्रति स्पष्ट ही यमदूतके योग्य काम किया है / यह [ सती होनेके कारण मेरे कानोंको परपुरुष सम्बन्धी कोई बात नहीं सुननी चाहिये; किन्तु मेरे कानोंने सुनकर पाप किया है और मैं मृतप्राय हो गई हूं, तथा सुन्दर आकृति होनेसे मधुरभाषी होना उचित होने पर भी तुमने ऐसे कर्णकटु सन्देश रूपी सूइयों से मेरे कानोंको मर्माहत करते हुए यमदूतका ही वास्तवमें कार्य किया है / यमदूत भी मरे हुए व्यक्तिके अङ्गों में बहुत-सी सूइयोंको धसा-धसाकर उसे पीडित करते हैं। 'दुष्कृतिनी'शब्द को 'मां' शब्दका विशेषण मानकर 'पापिनी मेरे प्रति' भी अर्थ हो सकता है / अथवा'अदुष्कृतिनी' अर्थात् पाप रहित कानोंको....| तुम इन्द्र आदि चारो दिक्पालोंके दूत होकर भी केवल यमके दूतका कार्य किया, यह सर्वथा अनुचित किया / अन्य भी बौद्ध आदि सर्वथा दोष हीन श्रुति अर्थात् वेदको दुष्ट वचनोंसे दूषित करते हैं ] // 62 // त्वदास्यनिर्यन्मदलीकदुयशोमसीमयत्वाल्लिपिरूपभागिव / श्रुतिं ममाविश्य भवदुरक्षरं सृजत्यदः कीटवदुत्कटा रुजः // 6 // स्वदिति / त्वदास्यानियत् निर्गच्छत् ममालीकमारोपितत्वान्मिथ्याभूतं दुर्यशो दुःसमज्या तदेव मसी तन्मयत्वाल्लिपिरूपभाक् लिप्यक्षरतां प्राप्तमिव स्थितमदः इदं भवतो दुरक्षरमतः किमित्यादि दुर्वाक्यं कीटवहंशादिजन्तुवत् मम श्रुतिं श्रोत्रमाविश्य उस्कटा महत्तराः रुजाव्यथाः सृजति जनयति / रूपकोत्प्रेक्षासङ्कीर्णेयमुपमा॥ ___ तुम्हारे मुखसे निकली हुई मेरी मिथ्या कीर्तिरूपी मषी (स्याही ) मय होनेसे लिपी (लेख ) रूपको प्राप्त ( पाठा०-..."मसीमयी तथा लिपिरूपको प्राप्त, अथवा..... मसीमय तथा सुन्दर लेखरूपको प्राप्त), यह आपका दुष्ट अक्षर (वाला वचन ) मेरे कानमें घुसकर कीड़ेके समान तीव्र पीडा करता है / [ आपका मुख मसीपात्र ( दावात ) तुल्य है उससे इन्द्रादिके अनुराग विषयक मेरे अपयशके तुल्य मसीमय ( अपयशके कृष्णवर्ण होनेसे उसको मसी ( स्याही ) कहना उचित ही है ) अर्थात् स्याहीसे लिखा गया, तुम्हारा कहना, दुष्ट अक्षर वाला है और उसके सुननेसे मेरे कानों में ऐसी तीव्र पीडा हो रही है, जैसे बाहर से कानके भीतर प्रवेश किया हुआ कीड़ा तीव्र पीड़ा करता है / तुम्हारा सन्देश कर्णकटु एवं मुझ पतिव्रता के लिए अपकीर्तिकारक है, अतः उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगी] // तमालरूचेऽथ विदर्भजारता प्रगाढ मौन्त्रतयैकया सखी। त्रपांसमाराधयतीयमन्यया भवन्तमाहस्म रसज्ञया मया।। 64 // तमिति / अथानन्तरं विदर्भजेरिता दमयन्तीचोदिता आलिः सखी तं नलमूचे / किमिन्यत आह-सौम्य ! इयं सखी मी प्रगाढं दृढं मौनव्रतां यस्यास्तया एकया 1. "मसीययं सल्लिपि-'' इति पाठान्तरम् / 2. "स्वरसज्ञया" इति नारायण अर्यास्यातं पाटान्तरं युक्तमिति बोध्यम् / 220
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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