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________________ चतुर्थः सर्गः / 226 कुरु करे गुरुमेकमयोधनं बहिरितो मुकुरञ्च कुरुष्व मे | विशति तत्र यदेव विधुस्तदा सखि ! सुखादहितं जहि तं द्रुतम् / / 6 / / - कुर्विति / हे सवि! एकं गुरु महान्तम् अयोधनं तप्तायःपिण्डघवनमयोमुद्गरं करे कुरु बिमृहीत्यर्थः / इतोऽस्मसाधनादहि, मे मम मुकुरं दर्पणं च कुरुष्व विधेहि / तन मुकुरे या विधुर्विशतिप्रतिफलति, तदैव, सुखाइनायासात् , महितं शव, तं विधं, दुतं जहि मारय / हन्तेलोटि सिपि हिरादेशः / 'हन्तेज' इति जादे. शस्य 'असिदबदबामात्' इत्यसिद्धवाश हेलुंक / अत्र चन्द्रप्रहारादिप्रलापा मेघ. सन्देशादिवन्मदनोन्मादविकारा इत्यनुसन्धेयम् // 59 // हे सखि ! अपने हाथमें लोहेका भारी धन लो, मेरे दर्पणको इस (घर ) के बाहर (आगनमें ) रखो। इस दर्पणमें जब चन्द्रमा प्रवेश करता (प्रतिबिम्बित होता) है, तब उस शत्रुको अनायास ही शीघ्र मार डालो। [ अन्य भी कोई व्यक्ति किसी प्रकार घर आदि में शत्रके वसनेपर लोहे छड़ आदि भारी पदार्थोसे उसे मारता है। दमयन्तीका उन्माद बहुत ही बढ़ गया है, जिसके कारण वह इस प्रकार बेसिर-पैर की बातें करती है ] // 59 // उदर एव धृतः किमुदन्वता न विषमो षडवानलवद्विधुः / विषवदुझितमप्यमुना न स स्मरहरः किममुं बुभुजे विभुः / / 60 / / उदर इति / विषमः क्रूरकर्मा, विधुः, उदन्वता उदधिना, 'उदन्वाइनुषी च' इति निपातः। वडवानलबटवाग्निना तुल्यं, 'तेन तुल्यं क्रिया चेदतिः' उदरे कुवा. चेव किं न धृतः / अथवा, अमुना उदन्वता उज्झितमप्यम विधं विभुः समर्थः स्मर. हरः, विषषद्विषेण कालकूटेन तुल्यं, पूर्वपद्धतिः। किं न बुभुजे म असतेस्म / उभयथापि स्वयं जीवेम इति भावः // 6 // __ समुद्ने वडवानलके समान दुःसह ( पक्षान्तरमें-विषतुल्य ) चन्द्रमाको पेटमें ( अपने भीतर ) ही क्यों नहीं धारण किया 1 तथा इस ( समुद्र) के द्वारा विष ( कालकूट ) के समान छोड़े (बाहर निकाले ) गये इस चन्द्रमाको काम-नाशक एवं सर्वसमर्थ वे शहर जी क्यों नहीं खा गये 1 / [ लोकनाशकारी वडवानलको समुद्ने जिस प्रकार अपने भीतर रखकर जगतका उपकार किया, वैसे ही सन्तापकारक चन्द्रमाको भी भीतर ही रख लेना उचित था। और यदि समुद्र ने इस चन्द्रमाको अपने भीतर नहीं रखकर कालकूट विषके समान इसको भी बाहर कर दिया तो कामदेवको भस्म करनेवाळे तथा सर्वशक्तिसम्पन्न शङ्करजीने जगत के दाइक कालकूट विषको जिस प्रकार खाकर संसारको बचा लिया, उसी प्रकार इस चन्द्रमाको भी क्यों नहीं खाया? अतएव जात होता है कि बडवानल तथा कालकूटसे भी अधिक दाह करनेवाला यह चन्द्रमा है, इसी कारण समुद्र तथा शहरजीने भी इसको छोड़ दिया] // 60 // .
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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