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________________ 214 नैषधमहाकाव्यम् / यादिपर लिप्त चन्दन द्रव सूखकर चूर्ण (धूलि ) हो जाता था तथा मृणाल मौ मुरझाकर सापके समान संकुचित (टेढ़े-मेढ़े) हो जाते थे ] // 27 // विनिहितं परितापिनि चन्दनं हृदि तथा भृतबुबुद्दमाबभौ / उपनमन सुहृदं हृदयेशयं विधुरिवाङ्कगतोडुपरिग्रहः // 28 // विनिहितमिति / तया भैम्या, परितापिनि हृदये वचसि, विनिहितं भृतबुबु दम अतिक्वाथकृपीटक, चन्दनं सुहृदं सखायं, हृदये शेत इति(त)हृदयेशयं मन्मथम 'अधिकरणे शेतेः' इत्यम्प्रत्ययः / 'शयवासवासिष्वकालात्' इत्यलुक / उपनमाप. सर्पन , अङ्कगतोहुपरिग्रहः अन्तिकस्थतारकापरिकरः, विधुरियाबमावित्युत्प्रेक्षा। ___उस दमयन्तीके द्वारा सन्तपनशील हृदयपर रस्खा चन्दनका लेप, बुद्बुद ( पानीका बुलबुला ) बनकर हृदयमें रहनेवाले मित्र कामदेवके पास तारारूप परिवार के सहित भाये हुए चन्द्रमाके समान मालूम पड़ता था। [अन्य भी कोई व्यक्ति मित्रसे मिलने के लिये सपरिवार पाता है / अत्यन्त सन्तप्त तवे आदिपर रखे द्रव पदार्थमें भी बुदबुद निकलने रुगते हैं / दमयन्तीका हृदय विरह से अत्यधिक सन्तप्त हो रहा था] // 28 // स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् / श्रयितुमर्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितमर्मरमुज्झितम् / / 26 // स्मरेति / स्मरहुताशनदीपितया कामाग्निततया तया बहु भूरि, सरसं साद्र सरसीरुहं सरोज, मुहुः, अपितुं शैत्याय सेवितुम्, अधे पयि अर्धपथे कृतं, तत्पर्यन्त. मानीतं सत् , अन्तरा मध्ये, श्वसितेन भैमीनिवासेन, निर्मितं मर्मरं सद्यःशोषात् कृतमर्मरशन्दं सत् , उज्झितं वैरस्यास्यकम् / तथोष्णस्तविश्वास इति भावः / 'अथ मर्मरः / स्थानते वसपर्णानाम्' इत्यमरः / ईग्धर्मासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशः मोहिमेदोऽलङ्कारः // 29 // कामाग्निसे सन्तप्त उस दमयन्तीने बहुतसे और भनेक बार ताजे कमळको, (तापशांति के लिये हृदयादिपर) रखने के किये माधे मार्ग में आते ही (अरयुष्ण) निश्वास-वायुसे ममर. (शुष्कप्राय होनेसे ममरशब्दयुक्त ) होनेपर ( उनके अनुपयुक्त हो मानेके कारण ) फेंक. दिया। [विरहाग्निसे दमयन्ती के निःश्वास अत्यन्त गर्म 2 निकल रहे थे] // 29 // प्रियकरग्रहमेवमवाप्स्यति स्तनयुगं तव ताम्यति किं न्विति / जगदतुर्निहिते हृदि नीरजे दवथुकुड्मलनेन पृथुस्तनीम् // 30 // प्रियेति / हदि वसि, निहिते म्पस्ते, नीरजे पझे, दवथुः परितापः, दूक टिवाः वथुप्रत्ययः / तेन यस्कुडमलनं मुकुलनं निपीव्य ग्रहणमिति यावत् / तेन पृथुस्तनी दमयन्ती, तब स्तनयुगं (क) एवमनेन प्रकारेण, प्रियकरण ग्रहं निपीड्य ग्रहणम् , अवाप्स्यति / किं नु किमर्थ, ताम्यतीति अगदतुः ऊपतुः / ननमिति शेषः // 30 // ( सन्तप्त ) हृदयपर रखे हुए दो कमक ( अत एव तापके कारण ) सङ्कुचित होनेसे.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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