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________________ षष्ठः सर्गः। 206 किसी स्त्रीने अपने मुक्ताहार में प्रतिबिम्बित नलको देखा (फिर अन्यत्र ) जाते हुए उनको ( अपने हारने प्रतिबिम्ब रूप से भी) नहीं देखा, अतः उनके ( सौन्दर्याधिक्यमे ) नलगत चित्तवाली ( अथवा-अभी मैंने अपने हारमें प्रतिबिम्बित एक तरुणको देखा था, और अब वह नहीं दिखलायी पडता अतः कहां गया ऐसी चिन्तावाली ) कृशाङ्गीने 'वह मेरे हृदयमें ही प्रविष्ट हो गया है / इस प्रकारका ठीक ही निश्चय किया। [ उस नलकी सुन्दरता उस कृशाङ्गीके हृदयमें जम गयी अतः वह अपने हारमें प्रतिविम्बित नलको देख उन पर आसक्त होकर काम-पीड़ित हो गयी] // 30 // तच्छायसौन्दयनिपीतधैर्याः प्रत्येकमालिकदम् रतीशः / रतिप्रतिद्वन्द्वतमासु नूनं नामषु निर्णीतरतिः कश्चित् / / 31 / / तच्छायेति / रतीशः कामः तस्य नलस्य छाया तच्छायं, मणिकुष्टिमाविगतं तत्प्रतिबिम्बम् / “विभाषा सेनासुराग्छायाशालानिशानाम्" इति नपंसकरवम् / तस्य सौन्दर्येण निपीतधैर्या अमूः स्त्रीः प्रत्येकमेकैकामेवालिङ्गत् / अनोत्प्रेक्ष्यते-रतेः देव्याः प्रतिद्वन्द्वतमासु रतिसहशीध्वमूषु मध्ये स रतीशः, कयश्चिदपि निर्णीतरति. निश्चितनिजपत्नीको नाभूत् / नूनम्, अन्यथा कथं प्रत्येकमालिंगेदित्यर्थः / सर्वास्वपि मन्मथविकारः प्रादुर्भूत इत्यर्थः // 31 // (अपने हारों तथा मणिमय फर्श एवं दीवालों में प्रतिविम्बित ) नलके प्रतिबिम्ब के सौन्दर्यसे नष्ट धैर्यवाली उन प्रत्येक खियोंको रतिपति ( कामदेव ) ने आलिङ्गन किया, क्योंकि रतिकी प्रतिद्वन्द्विनी (रतिके समान) उन स्त्रियों में 'यही रति हैं। ऐसा निश्चय नहीं कर सका। [ एकको आलिङ्गन करनेपर अन्य स्त्रीको अत्यन्त सुन्दर देख उसे ही रति समझ उसका भी आलिङ्गन किया, इसी प्रकार सब स्त्रियों को कामने आलिङ्गन किया, जैसे कोई व्यक्ति भ्रमसे एक वस्तुको अपना समझकर पहले उसे लेता है, किन्तु फिर दूसरी वस्तुको अपना समझता है तो पहले ली हुई वस्तुको छोड़कर दूसरीको ले लेता है और वास्तविक निर्णय नहीं होने तक ऐसा ही करता है, वैसा ही रतितुल्य उन स्त्रियों में भी रतिका ठीक-ठीक पहचान न कर सकनेवाले कामदेवका आलिंगन भी अनुचित या दोषः जनक कार्य नहीं है "नलकी छायागत सुन्दरताको देखकर अन्तःपुर की सब स्त्रियां कानपीड़ित हो गयीं"] // 31 // तस्माददृश्यादपि नातिविभ्युस्तच्छायरूपाहितमोहलोलाः। मन्यन्त एकाहतमन्मथाज्ञाः प्राणानपि स्वान् सुहशस्तृणानि / / 3 / / तस्मादिति / सुदृशः स्त्रियः तच्छायारूपेण तत्प्रतिबिम्बसौन्दर्येणाहितः उत्पादितः मोहः चित्तभ्रमो यासां ता अत एव लोला आसक्ताः सत्यः। अदृश्यादपीति भयहेतूक्तिः। तस्मानलान्नातिबिभ्युः। शृङ्गारेण भयानकस्तिरस्कृत इत्यर्थः / तथाहिआरतमन्मथाज्ञा मन्मथपरतन्त्राः सत्यः, स्वान् स्वकीयान् , प्राणानपि तृणानि
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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