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________________ 316 नैषधमहाकाव्यम् / ऐसे (दूसरोंको ठगनेवाले ) भापलोगों की पूजा करने में तृणवत तुच्छ मुझे घृणा नहीं माती ? अर्थात अवश्य जाती है ( ऐसे निन्दित कर्म करनेवाले भापलोगोंकी बड़ोंके साथमें पूजा करने में जब मुस-जैसे तुच्छ मनुष्य को भी घृणा हो रही है तो बड़े लोग आपलोगोंकी पूजा कैसे करेंगे ? भर्षात् कदापि नहीं करेंगे)। अथवा-ऐसे परवञ्चक भतएव असाधु भापकोगों की पूजा तणको बाति ( तुच्छों के बीच ) में भी करते मुझे घृणा होती है / माप. लोग तृणके समान मी पूज्य नहीं है अर्थात् दूसरेको ठगने के कारण अमहान् (तुच्छ) आपलोगोंसे तुण नविक पूज्य है, परन्तु आपलोग नहीं ] // 107 // - उद्ममामि विरहान्मुहुरस्या मोहममि च मुहर्तमहं यः / ब्रत वः प्रभवितास्मि रहस्यं रक्षितुं स कथमीगहवस्थः // 108 // उद्ममामीति। किश, योऽहमस्या भैम्याः विरहान्मुहुरुद्धमामि उन्माद्यामि मुहर्तमीपरकालं, मोहं मूच्छां च एमि प्राप्नोमि / ईगवस्थः सोऽहं वो युष्माकं, रहस्य रचितुंगोप्तुं, कचं प्रमवितास्मि प्रभविष्यामि, न शवपामीत्यर्थः / ब्रूत। ब्रुवो लोट। जो ( मैं ) इस ( दमयन्ती ) के विरहसे उन्मादयुक्त अर्थात पागल और दो बड़ी तक मूछित हो जाता हूँ, ऐसी अवस्थावाला मैं आपलोगोंके गुप्त सन्देशको छिपाने के लिए कैसे समय होगा ? कहिये / [ जैसे कोई पागल व्यक्ति किसीकी गुप्त बातको मी सबके समक्ष प्रकाशित कर देता है तथा मूच्छित व्यक्ति किसी आवश्यक बातको भी होशमें नहीं रहनेसे भूमाता है वैसे ही मैं भी भापकोगोंका रहस्य (दमयन्तीको वरण करने की इच्छा) को नहीं छिपा सकूँगा या भूल जाऊँगा, अतः मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजनेसे भापलोगोंका कार्य सिख होना तो दूर रहा, पहले ही सबको विदित होनेसे बिगड़ नायगा] // 1.8 // यां मनोरथमयी हृदि कृत्वा यः श्वसिम्यथ कथं स तदने / भावगुप्तिमवलम्बितुमीशे दुर्जया हि विषया विदुषापि // 10 // यामिति / योऽहं मनोरथमयी सङ्कल्परूपां, यो भैमी, हदि करवा श्वसिमि प्राणिमि / अथ सोऽहं तदने तस्याः भैग्याः पुरा, भावगुप्ति कामविकारगोपनमबल. वितं, कयमीशे शक्नोमि। तथा हि, विदुषा विवेकिनापि विषयाः शब्दादयो दुर्जया इत्यर्यान्तरन्यासः॥ 109 // __बो ( मैं ) सङ्कल्परूप जिस दमयन्तीको हृदयमें करके जीता हूँ, वह मैं उस दमयन्तीके भागे ( अपने रोमाञ्च, स्वेद, स्तम्म, स्वरभङ्ग, शरीरकम्पन, विवर्णता और रोदनरूप सारिखक) भावों को कैसे छिपा सकूँगा ! अर्थात् कदापि नहीं छिपा सकूँगा, क्योंकि विद्वान् मी विषयों को दुःखसे जीतते हैं। [भत एव मैं आपलोगोंका कार्य करने के योग्य कदापि नहीं हूं] // 109 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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