________________ नैवधमहाकाव्यम् / शिवाशिवतनूजोऽपि त्रिलोकीशिवकारकः / वक्रतुण्डोऽपि सुमुखो यस्तं वन्दे गणाधिपम् // 1 // जगतां व्यवहारस्य याऽस्ति हेतुः सनातनी। सारदां शारदामाच्छवां वन्देऽस्मि शारदाम् // 2 // पदपरमवचिन्तामण्योरा' न कामये बातु। पाचे वासेवालम्पं सम्शानदं सततम् // 3 // लोकनाथं पूर्णचन्द्रं प्रीत्रिवेदिमहाशयो। . शब्दशावगुरुन् बन्दे भकिनम्रस्तदधिषु // 4 // देवीप्रसादमाध' वपदपोतावाश्रयामि सदा। कायाणवेविहमिय"चिन्तामणि समवातुम् // 5 // 'भारा' मण्डल केसठ'वास्तग्यो 'मूर्ति'गर्भभवः। 'हरगोविन्दः शाली' 'रामस्वार्था'स्मजन्माहम // 6 // 'मेप'वाल्यां स्वराष्ट्रभाषामयीमधुना। एषा मुदेऽस्तु मुधियां सान्सेवसतां सदा लोके // 7 // पृथ्वीपाक (राणा) विस ( नक) को कथाओंका सम्यक् प्रकारसे पानकर विद्वान् जोग (पा-अमृतमोजी देवता डोग ) अमृतका सा (नकी कमाके समान ) मादर नहीं करते है (अपने ) कीतिसमूहको श्वेवच्छत्र बनाये हुए तथा नित्य उत्सवबाले में तेबोराशि वर्षात महादेवस्वी नल हुए। अबवा-विसको कपाका सम्यक् प्रकारसे पानकर (वायादिके द्वारा ) पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले देव अमृतका भी वैसा भादर नहीं करते,..."| अववा-विसकी कथाका.."देव सुधामय अर्थात चन्द्रमामें भी वैसा भादर नहीं करते,"..."। अथवा...बिसकी कथाका...."पृथ्वीको रक्षा करनेवाले मांत राजा लांग तथा बुध अर्थात देवलोग अमृतका भी वैसा-मादर नहीं करते / अथवा-विसकी कथाका... (फणामण्डलपर पृथ्वीको धारण करनेसे ) पृथ्वी-रक्षक होनेसे अमृत तथा नरू कथाके ( एवं अमृतमोजी तारतम्यके ) शाता शेष तक्षकादि नाग गोग. अमृतका मी वैसा भादर नहीं करते...." / अथवा- क्षितिः+ अक्षिणः' पदच्छेद 1. 'चिन्तामणि' संज्ञकप्रस्तर-नैषधोक्त ( 1485) 'चिन्तामणि'मन्त्रयोः। 2. नैषध एव भीर्षकविनोक्तं ( 14 / 8. ) 'चिन्तामणि' संशकं मन्त्रम् / 1. मीपूज्यपाद पं० देवनारायणत्रिवेदि-(महाशय जोनाम्नाख्यात ) ओं पं० रामय. शसिपाठिनौ। 4. कविवकपतिमहामहोपाध्याय-श्री पं० देवीप्रसादशुक्कः, महामहोपाध्यायो दाक्षिगावो बिहान् मी पं० माषपशाखी माण्डारी च (मत्काव्यपाठयितारौ ) / 5. नेपचरितकाम्यावाद चतुर्दशसर्गीयपनाशीतिरकोकोक्तं चिन्तामणिमन्त्रम् /