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________________ सप्तमः सर्गः। 401 व्योग्नि पयःकरिकराग्रयोः' इति विश्वः / कुण्डलनस्य भुग्नीकरणस्य च्छलेन गोपा. यति पिधत्ते युक्तम् / सापहवोत्प्रेक्षा // 94 // ___ उस ( पक्षा०-कृशाङ्गी ) दमयन्तीके ऊरुस्तम्भद्वयने हाथीके हाथ (सूड ) को जीत लिया है, अतएव ( पराजित ) बह हाथ ( हाथीका सूड) लज्जासे अपने मुखकमल (पक्षा०मुखरूप पुष्करको हाथीके सूंड़ के अग्रभागको 'पुष्कर' कहते हैं ) लपेटने के बहानेसे छिपा रहा है, यह उचित ही है / [ लोकमें भी पराजित भलामानुष व्यक्ति लज्जासे अपने मुखको छिपाता है-सबके सामने मुख नहीं दिखाना चाहता ] // 94 // अस्यां मुनीनामपि मोहमूहे भृगुर्महान् यत्कुचशैलशीली / नानारदानादि मुखं श्रितोरुव्यामो महाभारतसर्गयोग्यः / 15 // अस्यामिति / अस्यां दमयन्त्यां मुनीनामपि मोहं भ्रान्तिमासक्तिमिति यावत् / ऊहे तकयामि / उत्प्रेक्षा / कुतः, यत् यस्मात् महानधिको भृगुप्रपातो मुनिविशेषश्च, यस्याः कुचावेव शैलौ शीलयति परिचिनोतीति तच्छीली मुखं नानाप्रकारैः रदैर्दन्तैराह्लादयतीति तत्तथोक्तम् / अन्यत्र नारदमुनिमालादयतीति नारदाह्वादि, तत् न भवतीति अनारदानादि, तत् नेति नानारदाहादि, नारदालादि इत्यर्थः / महाभाः महाप्रभः रतसगयोग्यः सुरतसम्पादनाहः। अन्यत्र महाभारतस्य इतिहासस्य सर्गे निर्माणे योग्यः क्षमो व्यासो विस्तारो द्वैपायनश्च श्रिता अरू सक्थिनी येन सः श्रितोरुः / 'सक्थि क्लीबे पुमानूः' इत्यमरः / अत्र श्लेषमूलया मुनिमोहोत्प्रेक्षया मुनयोऽप्यस्यां मुह्यन्ति किमुतान्ये इति वस्तु व्यज्यते // 95 // (मैं ) इस दमयन्तीमें मुनियों के भी मोह ( होने ) का तर्क करता हूँ, क्योंकि-बड़ा प्रपात ( जल गिरनेका तटरहित पर्वतीय स्थान-विशेष) स्तनरूपी पर्वतका परिशीलन करता है / ( पक्षा०-बड़े तपस्वी भूगु मुनि स्तनरूपी पर्वतका परिशीलन करते हैं, वहाँ रहते हैंतपस्याके लिये निवास करते हैं, या कामुक होकर उन्नत स्तनोंका मर्दन करना चाहते है / अथवा-अतट अर्थात् पर्वतीय प्रपात दमयन्तीके शील-स्वभावका परिशीलन करता है, किन्तु वह आज तक भी इन स्तनोंके स्वभावको नहीं प्राप्त कर सका है); ( दमयन्ती) का मुख अनेक अर्थात् बत्तीस दांतोंसे आह्लादित करनेवाला है ( पक्षा०-मुख नारदमुनिको आह्लादित करनेवाला नहीं हैं ऐसा नहीं, किन्तु आह्लादित करनेवाला ही है अर्थात् नारद मुनि भी इसको गान विद्या सिखाने या स्वयं सीखने के लिए इसके मुखको प्राप्तकर आह्वा. दित होते हैं, या-नारद मुनि भी कामुक होकर चुम्बनेच्छासे इस दमयन्तीके मुखको देखकर आह्लादित होते हैं ) और अत्यन्त कान्तियुक्त तथा रतिके योग्य (ऊरुका) विस्तार ऊरुका आश्रय कर रहा है अर्थात् ऊरुद्वयका विस्तार ( मोटापन ) अतिशय कान्तियुक्त एवं रति योग्य है [ पक्षा०-महाभारत नामक इतिहास ग्रन्थकी रचना करनेवाले ब्यास मुनि ( केलेकी छायाके भ्रमसे इसके ) ऊरुद्वयका आश्रय कर रहे हैं, या दमयन्तीका कामुक होकर भोगकी इच्छासे इसके ऊरुद्वयका आश्रय कर रहे हैं ] // 95 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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