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________________ 322 नैषधमहाकाव्यम् / (वस्तुतः) चन्द्रमा ( तुम्हारे वंशका आदि प्रवर्तक) में भी कोई कलङ्क नहीं हैं, (किन्तु वह ) केवल शशक ( का चिह्न ) है / [ तुम्हारा वंशपवतंक चन्द्रमा कलङ्की नहीं, किन्तु याचकों को देखकर जो तुम प्रसन्न दृष्टिसे नहीं देखते, याचना पूरा करनेके लिए स्वीकार करके भी फिर उसे पूरा नहीं करते और ओ सन्तुष्ट नहीं होते; यह सब तुम्हारे जैसे व्यक्तिके लिये कलङ्क है, अतः तुम्हें हमलोगों के प्रति वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए ] // 120 // नाक्षराणि पठता किमपाठि प्रस्मृतः किमथ वा पठितोऽपि / इत्थमर्थिजनसंशयदोलाखेलनं खलु चकार नकारः / / 121 // किश्वमर्थिषु ते नास्ति वाद इत्याह-नेति / अपराणि पठता शैशवे मातृकार राण्यभ्यस्यता भवता, नकारो निषेधवाची नशब्दो नापाठि किम् / अथवा, पठितो. ऽपि प्रस्मृतो विस्मृतः / इस्थमर्थिजनस्य संशय एव दोला तया खेलनं क्रीडाम् / नकारश्वकार / अनाथिनामीहरुसंशयासम्बन्धेऽपि तरसम्बन्धोक्तेरतिशयोकिभेदः / स चोक्तसंशयोस्थापित इति सरः॥ 121 // मक्षरों ( वर्णमाला ) पढ़ते हुए तुमने 'न' अक्षरको नहीं पढ़ा क्या ? अथवा पढ़कर भी भूल गये / इस प्रकार 'न'कारने याचक लोगोंके सन्देहरूपी झूलेकी क्रीडा कर दी। [ झूळेमें दोनों ओर दो रस्सियाँ रहती हैं, पर 'यहाँ आपने 'न' अक्षरको नहीं पढ़ा या पढ़कर उसे भूल गये ?' ये दो संदेह ही दो रस्सियों हैं, उस प्रकार के झूलेपर 'न'कार मानों कोढा कर रहा है। आपने अब तक किप्तीको पाचना करनेपर 'नहीं' नहीं कहा, मतः अब भी हमलोगोंको 'नहीं' मत कीजिये ] // 121 // अब्रवीत्तमनलः क नलेदं लब्धमुन्मसि यशः शशिकल्पम् / कल्पवृक्षपतिमर्थिनमेनं नाप कोऽपि शतमन्युमिहान्यः // 122 // भनत्रीदिति / अथानलोऽग्निस्तं नलमप्रवीत् / हे नल ! इदं वषयमाणं, लन्धं हस्तप्राप्तं, शशिकल्पं चन्द्रप्रतिम, यशः, क्वोजमसि कुत्र त्यजसि। किं तयशस्त. दाह-इह लोके, अन्यस्त्वयतिरिका, कोऽपि कल्पवृक्षपतिममन्यार्थिनमित्यर्थः / एनं शतमन्युमिन्द्रं, अर्थिनं नाप / तदेतदस्तगतमिन्द्रवाध्यत्वयशो वृथा मा विनाः शयेत्पथः // 122 // भग्नि उस नलसे बोले-'हे नल ! चन्द्रमाके समान ( अत्यन्त निर्मळ ) प्राप्त यशको कहाँ छोड़ रहे हो ? इस लोकमें दूसरे किसीने (व्यक्तिने) मी कल्पवृक्षके स्वामी इस इन्द्रको याचक रूपमें नहीं पाया है। [यदि तुम इन्द्र की याचना पूरी नहीं करोगे तो ये दूसरे किसीसे याचनाकर दमयन्तीके यहाँ दूत-कर्मके लिए भेजेंगे, इस अवस्थामें 'कल्पवृक्षका स्वामी अर्थात् कल्पनामात्रसे दूसरेकी इच्छा पूर्ण करनेवालेका स्वामी तथा सौ यशोंको करनेवाळे, मतः सत्पात्र इन्द्र भी नलसे याचना किये थे ऐसा निर्मल यश इस
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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