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________________ नैषधमहाकाव्यम् / (इस दमयन्तीके अधरोष्ठके ) मध्यभागके समीपवर्ती, कुछ सूजे हुए अर्थात् कुछ ऊँचे उठे हुए दोनों अधरोष्ठ जो शोभायमान हो रहे हैं, सो स्वप्नमें सम्भोगकालमें ( अधरपान करते समय ) दांतोंसे काटनेवाले मैंने ( अथवा-स्वप्न-सम्भोगकालमें दांतोंसे काटनेसे मैंने अपराध नहीं किया है क्या ! अर्थात् अवश्यमेव अपराध किया है / [ दमयन्तीके अधरोष्ठके दोनों प्रान्त स्वभावतः कुछ ऊँचे उठे हुए हैं, यह सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभ लक्षण है; किन्तु नल उस उठे हुए अधर-प्रान्तोंको स्वप्नकालीन सम्भोग में किये गये दन्तदंशन-जन्य समझकर अपना अपराध मानते हैं। दन्तदंशन करनेपर उस स्थानका शोथयुक्त होना सर्वानुभवसिद्ध हैं ] // 40 // विद्या विदर्भन्द्रसुताधरोष्ठे नृत्यन्ति कत्यन्तरभेदभाजः / इतीव रेखाभिरपश्रमस्ताः संख्यातवान् कौतुकवान्विधाता / / 41 // विद्या इति / कौतुकवान् विनोदी विधाता विदर्भेन्द्रसुतावा अधरोष्ठे कति विद्या अन्तरभ्यन्तरे अभेदभाजः भेदरहिताः सत्यो नृत्यन्ति विहरन्ति इति बुभुत्सयेति शेषः, इतिना गम्यमानार्थवादप्रयोगः। अपश्रमः श्रमरहितः सन् ताः विद्या रेखाभिः संख्यातवानिव गणितवान् किमित्युत्प्रेक्षा। अन्यथा वृथा रेखासृष्टिः स्यादिति भावः॥४१॥ ____ दमयन्तीके अधरोष्ठपर भेदोपभेदसहित कितनी विद्याएँ नाचती हैं अर्थात् दमयन्ती कितनी विद्याओं को जानती है', इस विषयमें कौतुक युक्त ब्रह्माने रेखाओंसे कामरहित होकर अर्थात् सरलतापूर्वक ( दमयन्तीकी विद्याओंको) गिना। [ दमयन्तीके अधरोष्ठपर जो रेखाएं हैं, वे दमयन्तीको भेदोपभेद सहित विद्याओंकी संख्या-सूचक चिह्न है अर्थात् दमयन्ती इतनी विद्याओं में निपुण थी / लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी की गणना करते समय विस्मरण न होने के लिये रेखाओंके द्वारा सरलतापूर्वक उसे गिन लेता है ] // 42 / / संभुज्यमानाद्य यथा निशान्ते स्वप्नेऽनुभूता मधुराधरेयम् / असीमलावण्यरदच्छदेयं कथं मयव प्रतिपद्यते वा / / 42 // संभुज्यमानेति / इयं भैमी, अद्य मया निशान्ते निशावसाने अपररात्र इत्यर्थः / तत्कालस्वप्नस्य सत्यत्वादिति भावः / स्वप्ने संभुज्यमाना मधुराधरा मनोज्ञाधरा सत्यनुभूता दृष्टा मयैव इत्थमनेन प्रकारेण स्वप्नविकारेणैव असीमलावण्यो रदच्छदो दन्तच्छदो यस्याः सा सती कथं वा प्रतिपद्यते दृश्यते चित्रमित्यर्थः स्वप्नदृष्टस्यार्थस्य जागरे सत्यसंवादादाश्चर्यम् // 42 // प्रातःकालमें ( अथवा-गृहमें ) इसके साथ सम्भोग ( पक्षा०-इसका आस्वादन ) करते हुए मैंने मधुर ( मीठे-मीठे) अधरोष्ठवाली अनुभव किया ( पक्षा०-खाया ), उसे इस समय अनन्त ( बेहद ) सौन्दर्ययुक्त ओष्ठवाली इसे मैं कैसे देख रहा हूँ या प्राप्त कर रहा हूँ ? यह आश्चर्य है। [ स्वप्नमें देखी या पायी गयी वस्तु प्रायः प्रत्यक्षमें असत्य हुभा करती हैं, मतः इसे मैंने स्वप्नमें जैसा मधुर रसयुक्त अधरोठवाली अनुभव किया था, इस
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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