________________ सप्तमः सर्गः। राजौ द्विजानामिह राजरन्ताः संविध्रति श्रोत्रियविभ्रमं यत् / उद्वेगरागादिमजावदाताश्चत्वार एते तदमि मुक्ताः // 46 // अथोच्चैश्चत्वारो ये दन्तास्तान् वर्णयति-राजाविति / यत् यस्मात् , इहास्यां द्विजानां दन्तानां विप्राणां च राजौ पडौ। उद्वेगं पूगफलम् / 'घोण्टा तु पूगः क्रमुको गुवाकः खपुरोऽस्य तु / फलमुगम्' इत्यमरः / तस्य रागो रक्तता। आदिशब्दात् खाद्यान्तरलेपसंग्रहः / अन्यत्रोद्वेगो व्यग्रता। रागो विषयाभिलाषः आदिशब्दाद देषादिसंग्रहः / तेषामुद्वेगरागादीना मृजया मार्जनेन / 'षिद्भिदादिभ्योऽह'। अव. दाताः शुद्धाः एते चत्वारो राजदन्ताः दन्तानां राजानो दन्तश्रेष्ठाः / “राजदन्तादिषु परम्" इति दन्तशब्दस्योपसर्जनस्य परनिपातः / श्रोत्रियाश्छन्दांस्यधीतवन्तः वेदपारगाः। 'श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ' इत्यमरः। “श्रोत्रियंश्छन्दोऽधीत" इति निपातः / तेषां विभ्रमं शोभां संविभ्रति तस्मान्मुक्ताः मौक्तिकानि अपवृत्ताश्च / 'मुक्ता तु मौक्तिके मुक्काः प्राप्तमुक्ता तु मोचित' इति विश्वः / अवैमि जानामि इति वाक्यार्थः कर्म / उत्प्रेक्षा // 46 // ___ इस दन्तपति सुपारीकी लालिमा ( या जलायी हुई सुपारी) आदि ( कत्था, सैधव, खरी, लवणादि ) के द्वारा रगड़नेसे निर्मल श्रेष्ट दांत ( पक्षा०-इस ब्राह्मणपतिमें उद्वेग (व्याकुलता), अनुराग आदि (द्वेष, ईर्ष्या, काम आदि अथवा-उत्कृष्ट वेगवाले अनुराग आदि ) के दूर करनेसे निर्मल ( अर्थात् पापहीन अन्तिम समयमें शोभमान जो चार ब्राह्मण ) वेदपाठियोंके भ्रमको उत्पन्न कर रहे हैं, इस कारणसे इन्हें (इन चार दांतोंको, पक्षा०-इन चार ब्राह्मणोंको ) मैं मुक्ता (मोतीके समान, पक्षा०-मुक्ति पाया हुआ) जानता हूं। [ जिस प्रकार ब्राह्मणों में भी वेदपाठी ब्राह्मण रागादिको छोड़ देते हैं, वे पापमुक्त होकर शीघ्र ही मुक्ति पा लेते हैं उसी प्रकार सुपारी, कत्था आदि दांतोंमें रगड़नेसे मोतीके समान स्वच्छ हो जाते थे, उनमें भी सामनेवाले हो चारो दांतोको अधिक रगड़ते हैं अतएव वे ही अधिक स्वच्छ भी रहते हैं। दमयन्तीके आगेवाले चारो दांत सुपारी आदिके रगड़ते रहनेसे मोतीके समान स्वच्छ है ] // 46 // शिरीषकोशादपि कोमलाया वेधा विधायाङ्गमशेषमस्याः / प्राप्तप्रकर्षः सुकुमारसर्गे समाश्यद्वाचि मृदुत्वमुद्राम् // 47 / / शिरीषेति / वेधाः विधाता शिरीषस्य कोशात्कुड़मलादपि कोमलाया अस्या भैम्याः, अशेषमङ्गविधाय सुकुमारसगै कोमलसृष्टौ पाप्तप्रकर्षों लोके लग्धोत्कर्पः सन् मृदुत्वमुद्रां मार्दवमङ्गीं वाचि भैमीवाण्यां समापयत् समापितवान् / सर्गतिशाय्यस्या वाड्माधुर्यमिति भावः / / 47 // ब्रह्माने शिरीषके कलिकासे भी अधिक सुकुमार शरीरवाली इस दमयन्तीके सम्पूर्ण अङ्गोंको बगाकर सुकुमार वस्तुके बनानेमें प्रतिष्ठा (नामवरी) प्राप्तकर सूकुमारताके