SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 440 नैषधमहाकाव्यम्। एवं धैर्यसे हीन ) उन दिक्पालोंका चित्त कबतक खिन्न रहेगा अर्थात् तुम उनपर कबतक अनुग्रह करोगी? [ लोकमें भी दो राज्यों की सीमाके मध्यमें चलनेवाले व्यक्तिको सम्पत्ति को जब बाण आदि शस्त्र धारण करनेवाला कोई प्रसिद्ध चोर या डांकू लूट लेता है तब वह खिन्न रहता है। बाल्य-तारुण्यकी वयःसन्धिमें स्थित तुममें इन्द्रादि दिक्पालों के चित्त आसक्त हैं, तुम्हारे विरहसे उनकी कान्ति नष्ट हो गई है और उनका धैर्य छूट गया है ] // तेषामिदानी किल केवलं सा हृदि त्वदाशा विलसत्यजस्रम् / आशास्तु नासाद्य तनूरुदाराः पूवोदयः पूर्ववदात्मदारः / / 60 / / तेषामिति / इदानीं तेषामिन्द्रादीनां हृदि सा प्रसिद्धा त्वदाशा केवलं त्वय्यति. तृष्णा एव आशा दिक च / 'आशा दिगतितृष्णयोः' इति वैजयन्ती। अजस्त्रं विलसति किल विज़म्भते खलु / आत्मदाराः स्वभार्याः पूर्वादयः प्राच्यादयः आशा दिशस्तु उदारा दक्षिणा महतीश्च तनूरासाद्य पूर्ववत् हृदि न विलसन्ति / 'उदारो महति ख्याते दक्षिणे दानशौण्डके' इति वैजयन्ती। अपूर्वनायिकानुरक्त हृदि पूर्वना. यिकाश्चतुरा अपि न लगन्ति / तथा महत्यो दिशः परमाणौ हृदि न लगन्तीति च भावः। त्वदाशापरवशास्ते स्वकीयं प्राच्याद्याशापरिपालनाधिकारमपि विस्मृत्य स्थिता इति तात्पर्यार्थः / अत्रोभयोराशयोरेकत्र हृदि प्राप्तौ एकस्या भैम्याशाया एव तनियमनास्परिसङ्ख्या / यद्यप्येकस्य उभयत्र प्राप्तावेकत्र नियमनं परिसङ्घयेत्यालङ्कारिकाणां लक्षणं तथापि मीमांसकैरुभयोरेकन प्राप्तावेकस्यैव नियमनमित्यङ्गीकाराच्चमत्कारकारित्वाविशेषाच उपलक्षणत्वेनोभयाङ्गीकारे को विरोधः ? अथवा एकस्य हृदयस्य आशाद्वयप्राप्तावेकत्रैव नियमनाद्वापि लभ्यत इति सर्वथा परिसङ्ख्या सम. स्त्येव / सा च श्लिष्टशब्दोपात्तयोराशयोरभेदाध्यवसायाच्छलेषभित्तिकाभेदरूपाति. शयोक्त्युत्थापितेति सङ्करः॥ 60 // इस समय उन (इन्द्रादि दिक्पालों ) के हृदय, वह तुम्हारी ( त्वद्विषयिणी ) आशा ( अत्यधिक तृष्णा, पक्षा-दिशा) ही बढ़ रही है, स्वपत्नीरूप पूर्व आदि दिशाएँ उदार (अनुकूल, पक्षा०-विशाल ) शरीरको प्राप्तकर पहलेके समान नहीं विलसित होती हैं / [जिस प्रकार अपूर्व नायिकानुरक्त चित्तमें चतुर एवं अनुकूल नायिकाएँ भी नहीं रुचती हैं, उसी प्रकार विशाल भी पूर्व पत्नीरूप दिशाएँ उन उन इन्द्रादि दिक्पालों के परमाणु परिमित हृदयमें नहीं समाती है / तुम्हे पानेकी अतितृष्णाके प वश वे इन्द्रादि देव अपने दिक्पालत्वकार्यको भी भूल गये हैं ] // 6 // अनेन साधं तब यौवनेन कोटि परामच्छिदुरोऽध्यरोहत् / प्रेमापि तन्धि ! त्वयि वासवस्य गुणोऽपि चापे सुमनःशरस्य // 11 // अनेनेति / हे भैमि ! वासवस्य त्वरयसीमा निरवधिः प्रेमा अनुरागोऽपि 1. "णि रति पाठान्तरम।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy