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________________ 58 दशमः सर्गः। इतीति / इतीत्थं, स्तुवन् स काव्यः, गायतैव गन्धर्ववर्गेण हूकृतीनां वर्गणाः पुनः पुनरुच्चारणानीत्यर्थः, ताभिः अन्वमानि अनुमोदितः, कर्मणि लुङ्, तथा वेदान् : पठतैव महर्षिवृन्देन ओङ्कारभूम्ना प्रणवभूयस्त्वेन, अन्वमानि अनुमोदितः / अत्र गानार्थंहङ्कारैः वेदपाठाथैः ओङ्कारैश्च काव्यवाक्यानुमोदनं कृतमिवेत्युत्प्रेक्ष्यते / 'ओमित्यनुमते प्रोक्तं प्रणवे चाप्युपक्रमे' इति विश्वः // 66 // इस प्रकार ( 10 / 60-65) स्तुति ( स्वयंवरकी प्रशंसा ) करते हुए 'शुक्राचार्यका गाते हुए गन्धर्वोने वार-वार हुङ्कार-समूह ( 'हूँ हूँ' ऐसा कहने ) से समर्थन किया तथा वेदोंको पढ़ते हुए महर्षि-समूहने ॐकार की बहुलता ( स्वीकृति-सूचक ॐ शब्दको बार-बार ) उच्चारण करनेसे समर्थन किया। [ लोकमें भी जिस प्रकार किसी की बातका समर्थन 'हूँ हूँ' तथा 'ॐ ॐ' कह कर किया जाता है, उसी प्रकार शुक्राचार्यके सभावर्णनका समर्थन गाते हुए गन्धर्षों तथा वेद पढ़ते हुए महर्षियोंने वार-वार क्रमशः 'हूँ' तथा 'ॐ ॐ कह कर किया। गायनमें 'हूँ हूँ' की तथा वेदाध्ययन में ॐ ॐ' का बाहुल्य होना उचित हो है / गन्धर्वो तथा महषियोंने शुक्राचार्य कृत स्वयंवर-प्रशंसाको उचित बतलाया ] है // 66 // न्यवीविशत्तानथ राजसिंहान् सिंहासनौघेषु विदर्भराजः। शृंगेषु यत्र त्रिदशैरिवैभिरशोभि कार्तस्वरभूधरस्य // 67 // न्यवीविशदिति / अथ विदर्भराजः भीमः, तान् राज्ञः सिंहानिव राजसिंहान् राजश्रेष्ठान् , सिंहासनौघेषु न्यवीविशत् उपवेशयामास, विशेणौँ चङ, यत्र येषु सिंहासनेषु, एभिः राजसिंहैः, कार्तस्वरभूधरस्य हेमाद्रेः सुमेरोः, शृङ्गेषु त्रिदर्शः देवैरिव, अशोभि शोभितम् / भावे लुङ् // 6 // इसके बाद विदर्भराज (भीम ) ने उन राजसिंहोंको सिंहासनोंपर बैठाया, जिन पर ये ( राजसिंह ) स्वर्ण पर्वत अर्थात् सुमेरुको चोटियों पर ( स्थित ) देवों के समान शोभते थे / स्वयंवर मञ्च सुमेरुशिखर तुल्य अत्युन्नत तथा स्वर्णमय और युवक राजा लोग देवतुल्य थे] // विचिन्त्य नानाभुवनागतांस्तानमर्त्य सङ्कीर्त्यचरित्रगोत्रान् / कथ्याः कथङ्कारममी सुतायामिति व्यषादि क्षितिपेन तेन // 68 // विचिन्त्येति / तेन क्षितिपेन भीमेन, नानाभुवनेभ्यः नानाप्रदेशेभ्यः, आगतान् तान् यूनः, मत्स्यैः सङ्कीर्णानि कीर्तयितुं शक्यानि, चरित्राणि गोत्राणि कुलानि नामानि च येषां ते न भवन्तीति तथोक्ताः तान् तथाविधान् , विचिन्त्य अमी युवानः, सुतायां विषये, कथङ्कारं केन प्रकारेण, 'अन्यथैवं कथम्' इत्यादिना णमुल, कथ्याः कथनीयाः, इति हेतोः, व्यषादि विषण्णेन जभावि, भावे लुङ् / 'प्राकसिता. दडव्यवायेऽपि'-'सदिरप्रतेः' इति षत्वम् , एतेषां चरित्रगोत्रादीनि नरलोकैवर्णयितुमशक्यत्वात् दमयन्ती कथं ज्ञास्यतीति विषण्णो बभूवेति भावः // 68 // वे राजा (भीम ) अनेक लोकों ( देशों ) से आये हुए उन राजाओंको देवताओंसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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