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________________ सप्तमः सर्गः। अस्या मुखश्रीप्रतिबिम्बमेव जलाच्च तातान्मुकुराच्च मित्रात् / अभ्यर्थ्य धत्तः खलु पद्मचन्द्रौ विभूषण याचितक कदाचित् / / 56 / / अस्या इति / पनचन्द्रौ यथाक्रमं ताताजनकात् जलाचा मित्रादाकारसाम्यात सुहृदः मुकुराच अस्य मुखश्रियः प्रतिबिम्बमेव याचितकं याच्जानिवृत्तम / 'याजा. प्राप्तं याचितकम्' इत्यमरः। “अपमित्ययाचिताभ्यां ककनी" इति कन्प्रत्ययः। विभूषणं कदाचिदभ्ययं धत्तो दधाते खलु / एतदीयमेव सुहृल्लब्धमनयोचितकमामरणं न स्वाभाविकमित्युत्प्रेक्षा // 56 // कमल और चन्द्रमा (क्रमशः) पिता जल और मित्र दर्पणसे इस दमयन्तीके मुखकी शोभाके ( स्नानादिके समय जलमें तथा शृङ्गारके समय दर्पणमें प्रतिबिम्बित ) प्रतिबम्ब ( परछाहीं) को याचनाकर याचनामें मिले हुए भूषणको कभी 2 (दिनमें कमल तथा रातमें चन्द्रमा) धारण करते हैं / [ कमल जलसे उत्पन्न होता है, अतः जल कमलका पिता है तथा स्वच्छ कान्तिको समानता होनेसे दर्पण चन्द्रमाका मित्र है / दमयन्तीके मुखश्री की छाया स्नानादि करते समय जलमें तथा शृङ्गार करते समय दर्पणमें पड़ती है, अतः स्वशोभा-हीन कमल तथा चन्द्रमा कमशः पितृस्थानीय जल तथा मित्रस्थानीय दर्पणसे दमयन्तीके प्रतिविम्बित भुखश्रीकी छायाकी मंगनी मांगकर दिनमें कमल तथा रात्रिमें चन्द्रमा भाभूषणके रूपमें धारण करते हैं तथा मंगनी में मिले हुए होने के कारण हो उसे सर्वदा नहीं धारण करते / लोकमें भी जिसके पास कोई भूषण नहीं रहता, वह पिता और मित्रसे मंगनी मांगकर कभी 2 अपनेको उस भूषण से भूषित करता है, 'सर्वदा धारण करने पर उस भूषण का स्वामी फिर कभी नहीं देगा' इस भयसे उस भूषणको कभी 2 ही धारण करता है, सर्वदा नहीं / जब दमयन्तीकी मुखश्रीकी परछाहींके समान भी कमल तथा चन्द्रमाकी शोमा सर्वदा नहीं रहती, तब उसकी साक्षात मुखश्रीकी समानता वे दोनों कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् कदापि नहीं कर सकते, अतः दमयन्तीकी मुखश्री कमल तथा चन्द्रमासे बहुत हो अधिक है ] // 56 // अर्काय पत्ये खलु तिष्ठमाना भृङ्गैर्मितामक्षिभिरम्बुकेलौ / भैमी मुखस्य श्रियमम्बुजिन्यो याचन्ति विस्तारित पद्महस्ताः / / 57|| अर्कायेति / पत्ये भर्ने, अर्काय तिष्ठमानाः स्वाभिलाषं प्रकाशयन्त्यः कामुक्यः सत्य इत्यर्थः / “श्लाघह" इत्यादिना चतुर्थी "प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्व" इत्यात्मनेपदम् / अग्बुनिन्यः पद्मिन्यः अम्बुकेलौ जलक्रीडाकाले भृङ्गैरेवातिभिर्मितामुपलब्धां मुखस्य श्रियं नुखशोभा विस्तारिताः प्रसारिताः पद्मा एव हस्ता यासां ताः सत्यो भैमी याचन्ति खलु / स्वरितेत्वाद्याचेरुभयपदित्वम् / दुहादित्वाद् द्विकर्मकत्वम् / अत्र पद्मिनीनां भैमीमुखश्रीयानोत्प्रेक्षया मुखस्य पद्माधिक्यव्यतिरेकः प्रतीयते // 57 // पतिरूप सूर्य के लिये अपने आशयको प्रकाशित करती दुई, कमलिनियां (दमयन्तोकी)
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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