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________________ 464 नैषधमहाकाव्यम् / सोऽपि ते जयलभ्य इत्याह-वदाननं कर्तृ विधं चन्द्रं स्वयमेव परानपेक्षं विजित्य तस्य विधोमंखे यागे भागमंशं भोक्तुं शीलमस्येति तद्भोजि भावि भविष्यत् तत्स्था. नाधिपत्यादत्र धर्मलाभ इति भावः // 102 // ___ तुमको हमलोग क्या दें ( तुमको देने योग्य कोई उत्तम पदार्थ हम लोंगके पास नहीं है, जिसे देकर हमलोग तुम्हें प्रसन्न कर सकें ), क्योंकि (पाठा० निश्चयसे) अधररूप अमृत तो तुम्हारे मुखमें स्वयं निवास करता है ( अतः देवभोज्य अमृत भी अपूर्व पदार्थ न होनेसे तुमको देना ठीक नहीं हैं, तुम्हारा मुख चन्द्रमाको जीतकर स्वयं ही उस ( चन्द्रमा ) के यज्ञ भागको प्राप्त करेगा ( अतः स्वयं प्राप्य यश भाग भी तुमको देना ठीक नहीं अँचता) [समस्त श्रेष्ठ बस्तुओंसे तुम्हें सम्पन्न रहने के कारण कोई भी वस्तु तुम्हें देने योग्य नहीं है, जिसे देकर हमलोग तुम्हें प्रसन्न कर सकें] // 102 / / प्रिये ! वृणीष्वामरभावमदिति पोदनि वचो न किन्नः। त्वत्पादपद्म शरणं प्रविश्य स्वयं वयं येन जिजीविषामः // 10 // त्वदायत्तमेवेत्याह-प्रिय इति / हे प्रिये ! दमयन्ति ! अस्मदस्मत्तः अमरभाव. ममरत्वमविनाशित्वं च वृणीष्वेत्येवंरूपं नोऽस्माकं वचः त्रपामुदश्चतीति अपोदचि लज्जावहं न भवति किम् ? भवत्येवेत्यर्थः / कुतः, येन कारणेन पादावेव पद्मे ते एव शरणं प्रविश्य रक्षकं प्राप्य वयं स्वयमनामयं जिजीविषामो जीवितुमिच्छामः / स्वयं पुधितस्यानार्थिनस्तुहातुः शुद्धैषज्यप्रतिज्ञावत् परिहासास्पदमेवेति भावः // 103 // 'हे प्रिये ! हम लोगोंसे ( तुम ) अमरत्व का वर मांगों ऐसा हम लोगों का कहना लज्जा-पूर्ण बात नहीं है क्या ? अर्थात् अवश्यमेव लज्जा पूर्ण बात हैं; क्योंकि तुम्हारे चरणकमलमें शरण पाकर हम लोग स्वयं जीना चाहते हैं। [ स्वयं दूसरेके चरणों में शरण प्राप्तकर जीनेकी इच्छा करनेवाला व्यक्ति उसीको अमरत्व का वरदान देना चाहे तो वह वचन लज्जास्पद ही होगा ] // 103 / / / अस्माकमस्मान्मदनापमृत्योस्त्राणाय पीयूषरसोऽपि नासौ। प्रसीद तस्मादधिकं निजन्तु प्रयच्छ पातुं रदनच्छदन्नः // 104 // न चामृतसेविनां वः कुतो मरणप्रसक्तिरिति वाच्यमित्याह-अस्माकमिति / हे दमयन्ति ! अस्मान्मदनादेवापमृत्योः सकाशादस्माकं त्राणाय रक्षणाय असौ पीयूषरसोऽपि नालम्, किन्तु तस्मात् पीयूषरसादधिकं निजं त्वदीयं रदनच्छदमोष्टं पातु नोऽस्मभ्यं प्रयच्छ देहि प्रसीद प्रसन्ना भव // 10 // ___ यह अमृतरस ( पाठा०-अमृतरूपी रसायन औषध ) भी हम लोगोंको इस कामदेव रूप अपमृत्यु ( अकाल मरण या दुर्गतिपूर्वक मरण ) से बचानेके लिये नहीं हैं, ( कामदेव हम लोगों को दुर्गत करके मार डालेगा और अमृत उससे हम लोगोंको नहीं बचा सकेगा), इस कारण उससे अधिक ( श्रेष्ठ अमृत युक्त ) अपना अधर पान करनेके लिए हम लोगोंके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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