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________________ सप्तमः सर्गः। 385 इत्यमरः / 'हरीतक्याकृतित्वयो यवमध्यस्तथोकः। भालिङ्गायश्चैव गोपुरछः मध्यदक्षिणवामगा।' इति च / आलिङ्गयोऽप्यूर्वक इति विरोधः। आलिङ्गयता. मालिङ्गनीयस्वमूर्वक ऊर्ध्वभाग इत्याविरोधः / सेयं ग्रीवाद्भुतैवोक्तविरोधादुक्तलक्षणयोगित्वाचेति भावः / अत्र विरोधाभासयोः संसर्गात् सजातीयसंसृष्टिः॥ 66 // यह ( दमयन्तीकी ) ग्रीवा अर्थात गर्दन अदुभुत ही है, जो बालकसे शोभित नहीं होने पर भी माणवक (बालक ) से प्रसाधित अर्थात् सुशोभित है, यह विरोध है; इसका परिहार इस प्रकार है कि-जो गर्दन अवटु अर्थात् गर्दनको घाँटी या गर्दन के पिछले भाग से शोभित होने पर भी माणवक अर्थात् बीस (या सोलह या चालिस ) लदियोवाली मोती की मालासे अलङ्कृत है और भालिगयता ( गोपुच्छाकार मृदङ्ग भाव ) को धारण करती हुई समान रूपताको धारण करती है तथा सम्पूर्ण ऊर्जक ( यवमध्याकार मृदा) वाली है ( यहाँ भी विरोध है, क्योंकि ) जो गोपुच्छाकार अर्थात गावदुम है, वह समान रूपवाली तथा यवमध्यके समान (मध्यमें स्थूल और दोनों किनारों पर पतली), इस प्रकार तीन आकृतिवाली नहीं हो सकती, इस विरोधका भी परिहार इस प्रकार है कि-जो गर्दन आलिङ्गन योग्यताको धारण करती हुई भी समान रूपवाले अर्थात् सब भागों में बराबर ऊपरी भाग ( 'काया' पाठान्तरमें- ऊपरी शरीर मुख, नेत्र, नासिका ललाट आदि ) वाली है। ( 'मुरूपता' पाठा-सौन्दर्ययुक्त सम्पूर्ण ऊपरी भागवाली है / अथवा-'मानामरूपता सम्पूर्ण ऊपरी भाग ( या पाठभेदसे शरीर ) वाली है ) // 66 // कवित्वगानप्रियवादसत्यान्यस्या विधाता न्यधिताभिकण्ठे / रेखात्रयन्यासमिषादमीषां वासाय सोऽयं विवभाज सीमाः // 67 // कविश्वेति / विधाता अस्या अधिकण्ठं कण्ठे / विभत्तत्यर्थेऽध्ययीभावः। कवित्वं च गानं च प्रियवादश्च सत्यं च तानि चत्वारि न्यधित निहितवान् / सोऽयं विधाता अमीषां कवित्वादीनां चतुर्णा वासाय कण्ठे असङ्कीर्णस्थितये रेखात्रयन्यासमिपात कम्बुग्रीवा त्रिरेखा सती लचमसम्पत्तिरिति भावः / सीमा मर्यादा विबभाज मध्य. रेखात्रयविन्यासेन चतुर्धा विभक्तवान् , अविवादायेति भावः / अत्र ग्रीवागतभाग्य. रेखात्रये सीमाविभागचितत्वमुस्प्रेक्ष्यते // 6 // ब्रह्माने इस दमयन्ती के कण्ठमें कविता सङ्गीत, मधुर भाषा और सत्य को रख दिया है (फिर ) उसने इन चारों ( कविता आदि ) के निवास ( अपने-अपने मर्यादित नियमित स्थान पर रहने के लिए तीन रेखाओं को रखने के बहानेसे सीमाओका विभाजन कर दिया है। जिस प्रकार एक स्थान पर चार व्यक्तिओं के रहनेपर उनके रहने के स्थानकी सीमः ना देने पर वे परस्पर में कभी विवाद नहीं करते और अपने-अपने नियमित स्थानमें रहते , उसी प्रकार दमयन्तीके कण्ठमें कविता आदि को रखकर ब्रह्माने उनके अपने-अपने नियत पानपर ( पक्षा०-मर्यादापर ) रहने के लिए तीन रेखाओं के बहाने सीमा बना दी है
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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