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________________ नवमः सर्गः। 486 क्रुद्ध हो जाता है ऐसी कोयलकी प्रकृति है; उसी प्रकार दूत नल भी दमयन्ती बारवार आग्रह करने पर कुछ रूक्षतायुक्त वचन बोले ] // 38 // अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते त्वमप्यमीभ्या विमुखीति कौतुकम् / कवा निधिनिर्धनमेति किश्च तं स वा कवाट घटयनिरस्वति / / 36 // अहो इति / ते इन्द्रादयोऽपि स्वागनु त्वामुद्दिश्य मनस्तन्वते कुर्वन्ति अहो आश्चर्य त्वमपि अमीभ्य इन्द्रादिभ्यः विमुखी पराम्मुखीति यत्कौतुकं चित्रमित्यर्थः / किञ्चक वा लोके निधिर्निर्धनमेति, क वा स निर्धनः कदाचिदैवयोगादागतमपि तं निधिं वा कवाट घटयन् निरस्यति द्वारं पिधाय निषेधतीत्यर्थः / ईशं वश्वेष्टितमिति दृष्टान्तालकारः // 39 // वे ( अतिशय श्रष्ठ इन्द्रादि ) तुम्हारे प्रति (या-पीछे ) मनको बढ़ाते हैं अर्थात् तुम्हें चाहते हैं, यह ( उत्तम देवोंका निकृष्ट मानुषीको चाहना ) आश्चर्य है। तुम भी उन (श्रेष्ठ इन्द्रादि ) से पराङ्मुख हो, यह बड़ा आश्चर्य है। निधि दरिद्रको कहां आती है ? अथवा वह दरिद्र किवाड़ बन्दकर (पाठा०-वह दारेद्र वचनरूपी किवाड़ बन्द करता हुआ) उसको कहां रोकता है ? / [ 'हान व्यक्तिको श्रेष्ठ व्यक्ति चाहे' यह आश्चर्य की बात है और वह हीन व्यक्ति श्रेष्ठ व्यक्तिके चाहने पर भी उससे विमुख रहे ( उसे न चाहे )' यह और आश्चर्य की बात है। इस कारण 'इन्द्र के चाहने पर भी तुम उन्हें नहीं चाहती' यह बड़े आश्चर्य की बात है; क्योंकि दरिद्र व्यक्तिके पास महानिधि कहीं भी नहीं आती, और उसके आनेपर दरिद्र उसे रोकनेके लिये किवाड़ बन्द नहीं करता ये दोनों बातें एकसे एक बढ़कर आश्चर्यान्वित करनेवाली हैं। तुम्हें इन्द्र का चाहना दरिद्र के पास निधि आनेके समान तथा तुम्हारा उन्हें मन! करना आये हुए निधिको रोकनेके लिये किवाड़ बन्द करनेके समान है। ऐसा न कहीं देखा हो गया और न सुना ही गया, अतः तुम्हारा देवों से विमुख होना सर्वथा अनुचित है ] // 39 / / सहाखिलस्त्रीषु वहेऽवहेलया महेन्द्ररागाद्गुरुमादरं त्वयि / स्वमीशी श्रेयसि मंमुखेऽपि तं परामुखी चन्द्रमुखी! न्यवीवृतः॥४०॥ सहेति / हे चन्द्रमुखि ! महेन्द्रस्य रागदेतोः। त्वयि गुरुं महान्तमादरमखिलस्त्रीषु विषये अवलेहया अनादरेण सह वहे त्वय्यादरमन्यास्वनादरं चबहानि, स्वामेव भाग्यवतीं मन्य इत्यर्थः। वहेः स्वरितेवादात्मनेपदं, सहोक्तिरलबारः / ईदृशि श्रेयसि सम्मुखे अभिमुखे सत्यपि त्वं पराङ्मुखी सती, तं पूर्वोक्तमादरं न्यवीवृतः निवर्तितवत्यसि / वृतेर्णी चङि सिचि रूपम् / “उरदि"त्यकारे सन्वनावे चाभ्यासेकारः॥ 40 // हे चन्द्रमुखि ! तुममें इन्द्र के अनुराग करनेसे मैं सम्पूर्ण स्त्रियों में अनादरके साथ अधिक 1. "वाकवाटम्" इति पाठान्तरम् / 2. "किम्" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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